शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

लागल झुलनिया के धक्का बलम कलकत्ता निकरि गए ...

हाँ तो भईया
भंग कर रंग जमा हो चकाचक फिर लो पान चबाय
ऐसा झटका लगे जिया पे पुनर्जनम होई जाय .........
केवल पान खाने से ??
और नहीं तो क्या.......
होली है कि जानती नहीं
और तमन्ना है कि मानती नहीं
होली भी मनानी है और मेहमानों को होली मिलन भी करवाना है ....
मंहगाई इतनी कि पान खाने से ही पुनर्जनम हो जाय
होली मनाएं भी तो कैसे ??
तो भईया सरकार के मंहगाई बढाने से क्या होता है
आज समानांतर सरकार जैसी समानांतर बाज़ार भी तो है हमारे पास..... मंहगाई
से निपटने के लिए
असली खोया(मावा) महगा हो ........ तो पाउडर का मिल जाएगा
असली दूध महगा हो ............. तो सिंथेटिक दूध है
रंग महगा हो ............. तो केमिकल है, जला मोबिल है.
सब्जी चाहिए............ तो दूध उतारने वाला इंजेक्शन लगा कर रातों रात
लंबी की हुई सब्जियां हैं
पिचकारी महगा हो ............तो सेकंड प्लास्टिक की टोक्सिक रंगों पिचकारियाँ हैं
और अगर होली खेलने को यार चाहिए तो ..........अपन है न (एकदम सस्ता टिकाऊ
और ओरिजिनल)
चलिए तो होली का जश्न शुरू हो चुका है ...
हुआ यूँ कि मेरी कालोनी में बहुत से श्याने लोग हैं ... जो होली खेलने
को अच्छा नहीं मानते
होली के नाम पर घर में घुस जाते हैं और बीवी के कहने पर भी दरवाज़ा नहीं
खोलते ..... कहते हैं आज तुम पर भी भरोसा नहीं ..
तीन साल पहले की बात है ......उस साल होली कि सुबह हुई तो सब कुछ नीरस सा
था .......लोग निकले ज़रूर पर बस अबीर का टीका लगाया और फार्मेल्टी कर
अपने घर में घुस गए ..... पर अपन का मन नहीं भरा था, अब हमारे कुछ मित्र
और पडोसी ऐसे भी थे जिनके मज़हब में होली खेलना मना है ... लेकिन हम लोग
आपस में बहुत खुले हुए हैं .. इस लिए वे भी उत्सुकता से हमारे
क्रियाकलाप देख रहे थे और मन उनका भी हुडक रहा था .......
सलीम, अतहर, रोशन के साथ साथ और भी बहुत से दोस्त और पडोसी ये समझ कर
मेरे घर आ गए कि अब तो रंग खतम हो चुका है .... पर मैंने कुछ और इंतज़ाम
कर रखा था ... और फिर जब शुरू हुई देसी होली तो बिना रंग के ऐसा रंग जमा
कि जो लोग कभी होली नहीं खेलते थे वो शाम चार बजे तक होली खेलते रहे और
शाम को इतने खुश...... बोले भईया ऐसी होली तो जिंदगी में नहीं खेली .....
ऐसा मज़ा कभी नहीं आया ...... तो आज आपको उस की कुछ झलकियाँ दिखा रहा हूँ
..... पसंद आये तो आप भी आजमायें पर इसकी कीमत थोड़ी ज्यादा हो सकती है
और वो है ------ आपका लान ...... चलिए होली का मज़ा लीजिए इसी पर एक
कजरी(होली गीत) पेश है -

लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

आवल फगुनवा के रुत मतवारी
कोयल कुकुहरे उछरि डारी डारी
गमके लागल पत्ता पत्ता ......
बलम कलकत्ता निकरि गए ...
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

हमरे बलमुआ के कातिल नजरिया
इत उत लूटेंला पटना बजरिया
अइसन भुलाइ गए रस्ता
बलम कलकत्ता निकरि गए ...
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

कौनो संदेसवा न भेजेला पइसा
तोड़े कमर मंहगाई बा अइसा
हालत भई हमरी खस्ता
बलम कलकत्ता निकरि गए ...
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

सहर जाइ बलमू के भाव बढ़ी गइले
ब्लागर भए कछु अऊर चढ़ी गइले
अबकी लिआउबे कौनो सस्ता
बलम कलकत्ता निकरि गए
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

निकरीलागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

आवल फगुनवा के रुत मतवारी
कोयल कुकुहरे उछरि डारी डारी
गमके लागल पत्ता पत्ता ......
बलम कलकत्ता निकरि गए ...
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

हमरे बलमुआ के कातिल नजरिया
इत उत लूटेंला पटना बजरिया
अइसन भुलाइ गए रस्ता
बलम कलकत्ता निकरि गए ...
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

कौनो संदेसवा न भेजेला पइसा
तोड़े कमर मंहगाई बा अइसा
हालत भई हमरी खस्ता
बलम कलकत्ता निकरि गए ...
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

सहर जाइ बलमू के भाव बढ़ी गइले
ब्लागर भए कछु अऊर चढ़ी गइले
अबकी लिआउबे कौनो सस्ता
बलम कलकत्ता निकरि गए
लागल झुलनिया के धक्का
बलम कलकत्ता निकरि गए ...

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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

हिन्दी ब्लोग्स का नया एग्रीगेटर "ब्लोग्नमा"

हिन्दी चिट्ठों के नए एग्रीगेटर "ब्लोग्नामा" पर आपका स्वागत है ... कृपया अपना ब्लॉग रजिस्टर करें ...
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सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

दिलकश नज़ारे गाँव में

2 comments:

Ismat Zaidi said...

mubarak ho, bahut umda ghazal hai sachchai alfaz ka jama pahan kar hamare saamne hai.

October 25, 2009 12:03 AM

इस्मत ज़ैदी said...

shahid sahab ji chahta hai is ghazal par kuchh aur likhoon
शहर की रंगीनियों से सादगी अच्छी लगी
हमने ओहदों के लबादे जब उतारे गाँव में

साजिश-ऐ-तकदीर ने दोनों को तनहा कर दिया
बेसहारा मै यहाँ, मेरे सहारे गाँव में

लौटने की कोशिशें करता रहा ''शाहिद'' मगर
रह गए अपने सभी बांहें पसारे गाँव में

itne khoobsoorat ashaar ,kya bat hai sbhan allah ,aankhen bhar aayeen

January 21, 2010 8:57 AM

वाह........ आज दिल को सुकून आया मुझे ...... अब लगा कि ब्लॉग जगत आबाद है ..... ऐसे ऐसे हीरे हैं इसमें ... इसका तो अंदाजा ही न था .. शहीद साहब की गज़ल और ... जैदी साहब आपके भी अलफ़ाज़ और एहसास को सलाम ...

Posted via web from हरफनमौला

My First Blog Post

हरिद्वार की हर की पौड़ी (प्रायोगिक पोस्ट)

Posted via email from हरफनमौला

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

अ र र र र झम !.... लो जी आ गया वो....

अ र र र र झम !
.... लो जी आ गया वो .... अरे वो ही .... जिसने खिला दिए हैं चमन में नए
नए फूल... और खींच मारे हैं दिल के बीचो बीच विरह के शूल .... भाई ये वही
है जो सब ऋतुओं के राजा बसंत के सर चढ कर बोलता हैं और ले जाता है एक नई
दुनिया में .... मस्ती और शरारत से भरी दुनिया से रंग और गुलाल से सजी
दुनिया तक ... मोहक तरुणाई से मादक अंगडाई तक...और इसका आना जैसे हर सोच
का जवां हो जाना ... आते ही इसके कुछ ऐसा होता हैं जैसे प्रेम की चाशनी
में उमंग की खुशबू मिला दी हो ... जैसे सजग बसन्त को भंग पीला दी हो ..
ये है मस्त मस्त फाग का मौसम ......और इसके आने का पता देती हैं आज की ये
पंक्तियाँ -

मन में उड़े पतंग तो समझो कि फाग है
हुलसाए अंग अंग तो समझो कि फाग है
दुनिया लगे रंगीन, दिन गुलाल सा उडें
बिन पिए चढ़े भंग तो समझो कि फाग है
**

फागुन के आने के आभास मात्र से ही पुराने पत्ते झरते लगते हैं और नए
पत्ते नव सृजन का सन्देश देते हैं ...मौसम गुलाबी होने लगता हैं ......
सर्दी की बोझिल हवाएं नव तरुणी सी मदमस्त हो कुलांचें भरने लगती हैं
...नए पत्ते अपनी कोमल और बालसुलभ अटखेलियों के साथ कसमसाते हैं और टेसू,
ढाक के फूल मौका पा कर जैसे वन में आग सी लगा देते हैं .... धरती अपने नए
कलेवर में सजने संवरने लगती है.. और सुन्दर कलेवर में सुहागिन सी दीखती
है .......

पात झरे ज्यूँ चांदनी, दिन सुलगाये आग
टेसू फूले बन जरे जैसे लग गयी आग
नवल पुष्प नव पांखुरी नूतन मधुप पराग
धरती ने धारण किये सुभग सुहास सुहाग
**

ये मौसम अपने मदमस्त चरित्र के लिए जाना जाता है पर जो अपने जोड़े से दूर
हैं उनके लिए ये मौसम विछोह की कसक से भरा और विरह की पीड़ा से अधीर करने
वाला है ...इसकी मस्ती ही प्रियतम की याद को झंझावत की तरह उमड़ घुमड़ कर
ऐसा लाती है कि कोई रसिक विकल हुए बिना न रहे

मन बौराया सा रहे, मस्ती सकल सरीर
कसक जगाए डोलती पुरवा मलय अधीर
टिहुक टिटिहरी मारती विरह बान गंभीर
बेकल सा तन डोलता,चित्त धरे नहीं धीर
**
और तो और काम देव ने बसंत में जो कुछ तैयारी की है उसकी परिणति का समय भी
आ पहुंचा है .. चारों और जैसे सम्मोहन सा खिंच रहा हैं ..... काम अपनी
कुटिलता से बाज़ नहीं आता और तन मन कुमार्ग पर भी ले चले तो अचरज नहीं
....और फागुन की यही मस्ती उम्र के पड़ाव भूल अपनी तरुणाई में ही विचरता
है .......

मोहनि मन मोहित करे मदन मंद मुसुकाय
काम कुटिल कल ना रहे करत कुमारग काय
ऋतु बसंत के रथ चढा ऐसा आया फाग
ले अंगडाई जागते मन के सोये राग

....... आज इतना ही ...अभी तो प्रारंभ हुआ है ....
रंग चढेगा धीरे धीरे ..
चटकेगी नित नयी कली रे
मनवा मत हो बहुत अधीरे .....
श्याम मिलेंगे यमुना तीरे
...........

Posted via email from हरफनमौला

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

ओ माँ....... (अजन्मा संवाद )

ओ माँ .....
पिता तो फिर पिता
तुमने भी न जाना
दर्द मेरा
रोशनी से पूर्व ही
विधि में लिखा मेरे अँधेरा
क्या नहीं मै,
प्यार का परिणाम
या बस वासना का
क्या नहीं फल एक माँ की
साधना का
बिम्ब हूँ
प्रतिरूप रूप तेरी कामना का
दीप हूँ मै
भक्ति का आराधना का
बंद कर आँखे
मुझे देखो
मुझे छू लो
तुम्हारा अंश हूँ माँ
दृष्टि को बदलो
मुझे सोचो
तुम्हारा वंश हूँ माँ
है नहीं भाषा
कि मै तुमको पुकारूँ
तन सजग भी नहीं
मै खुद को बचा लूँ
शक्ति हूँ
पर अभी तो अव्यक्त हूँ मै
तुम्हरी मज्जा
तुम्हारा रक्त हूँ मै
मै हजारों साल
तुमको खोजती
बहती गगन में
आज जब पाने चली
तन का घरोंदा
रोक लो माँ
मत मुझे मारो
ज़रा सोचो
तुम्हारा स्वप्न हूँ मै

करो अब साकार
देखो तुम्हारा
प्रतिबिम्ब हूँ मै
हर कठिन पल का
अडिग आलम्ब हूँ मै
बड़ी हो कर जो
कहोगी वो करुँगी
तुम कहो पानी भरो
पानी भरूंगी
तुम कहो अम्बर
धरा पर खींच दूंगी
स्वप्न तुम बोना
मै उन को सींच दूंगी
प्रेम, करुणा हूँ सदय हूँ
बुद्धि से ज्यादा हृदय हूँ
रण अगर जीवन बने तो
हार में निश्चय विजय हूँ
और ये सब रूप हैं
प्रतिरूप तेरे
रुक सके कब तक भला
तम से सवेरे
तोड़ कर प्राचीर
नव युग का सृजन कर
मलिन पूर्वाग्रहों का
पल में शमन कर
और मुझको
प्यार् का आभास दे माँ
मुझे जीवन के लिए
एक आस दे माँ
यही अभिलाषा
तुम्हारा रूप पाऊं
रश्मि बन छिटकूं
धारा को जगमगाऊं
किन्तु यदि
किंचिद समय से डर रही हो
कहीं तुम भी
भ्रूण में ही मर रही हो

किन्तु जननी हो
करो यह धारणा माँ
अंश हूँ तेरा
मुझे मत मारना माँ
रूप हूँ तेरा
मुझे मत मारना माँ

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बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

संवेदना , सहानुभूति और अभिव्यक्ति (पद्म सिंह)

........बेटा पूरा खाना तैयार है
बस अगर लहसुन की कुछ पत्तियां ले आती तो चटनी बना लेती...... लहसुन की
पत्ती की चटनी खाए भी कई दिन हो गए हैं...
उस परिवार ने अपने छोटे से बगीचे में थोड़े से टमाटर, लहसुन, हरी धनिया
आदि की क्यारियां बना रखी थीं, जिनमे सुबह शाम थोडा काम कर के मन बहलाव
भी हो जाता ... और छोटी छोटी ज़रूरतें भी पूरी होती ... जब भी ज़रूरत हो
एक दो टमाटर ले लिया.... या हरी धनिया कुटक ली ... ये घटना इसी क्रम के
दौरान हुई

बिटिया बोली......पर मम्मी शाम हो गयी है........अँधेरा भी होने लगा है
ऐसे में पत्तियां कैसे तोड़ कर लाऊं
पेड़ भी तो सोने जा रहे होंगे (ये कभी पिता ने या माँ ने समझाया था कि रात
में पेड़ सोते हैं इस लिए इनके पत्ते नहीं तोड़ते इन्हें दुःख होता है )
कुछ बच्चे जिज्ञासु होते हैं और छोटी छोटी बात मन में रख लेते हैं
छह साल की बिटिया ने जाने क्या सोचा होगा उन पौधों के बारे में
पर माँ ने बात को टालते हुए उसकी जिज्ञासा और अपनी ज़रूरत दोनों का हल
निकालने की गरज से एक तरीका निकाला .......
हाँ बिटिया ...बात तो ठीक कहा तुमने, पर एक तरीका हो सकता है
इस से पत्तियां भी मिल जाएँगी और पेड़ भी नाराज़ नहीं होंगे
.... वो कैसे ?
वो ऐसे ..... कि तुम पहले जाना उस लहसुन की क्यारी के पास
क्यारी से प्यार से पूछना .... क्यारी जी शाम हो गयी है.... पौधे सोने जा
रहे होंगे ... पर आप अगर कहें तो दो चार लहसुन की पत्तियां ले लूँ..? इस
से उसे बुरा भी नहीं लगेगा और पत्तियां भी मिल जाएँगी
कुछ तो जंची बात ... बिटिया गयी क्यारियों में ..... करीब दस मिनट बाद
लौटी तो उस के हाथ में कुछ नहीं था ... और मुह लटका हुआ था .... माँ ने
पूछा बेटा क्या हुआ ... ले आई पत्तियां ?
इस पर बेटी ने जो जवाब दिया उस ने माँ और पिता दोनों को स्तब्ध और सोचने
पर मजबूर कर दिया ...
उस ने मुंह लटका कर जवाब दिया ... मम्मी मैंने कई बार क्यारी से
पूछा..........लेकिन वो तो ...............
वो तो......???
.......लेकिन वो तो मना कर रही है
.................................................
उसके इस मासूम जवाब का कोई उत्तर नहीं था..... बनिस्बत इस के कि बिना
चटनी के खाना खाया जाता ....उसने बड़ी गहराई से इस बात को स्वीकार कर लिया
था कि पौधों को भी तकलीफ होती होगी .
ये प्रसंग कोई खास भले न हो पर एक बच्चे की सहज संवेदना और सहानुभूति को
दर्शाने के लिये पर्याप्त है जो उसके मन में पौधों के लिए उस समय जागी.
आज के प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा से भरे वातावरण ने मनुष्य मात्र से
संवेदना और सहानुभूति को सोख लिया है... जीविका के दिन ब दिन दुष्कर होते
जाने और अस्तित्व में बने रहने की जद्दोजहद ने मनुष्य से उसकी सहजता और
मानवता को भी छीनना शुरू कर दिया है....जीने का ट्रेंड बदल रहा है ...
अपने लक्ष्य की प्राप्ति कि लिए अगर कई अन्य के लक्ष्यों का खून होता है
तो कोई हर्ज नहीं दीखता इस में... और ये बदलाव समाज के हर स्तर पर
परिलक्षित हो रहे हैं ... आज योग्यता, व्यक्तित्व और सामाजिक स्तर के
मानक बदल रहे हैं. और ये परिवर्तन शहर की सीमायें तोड़ गाँव की हवाओं में
भी अपना असर दिखा रहे हैं... आज के गाँव वो गाँव नहीं रह गए हैं ... शहर
के भूत बन कर रह गए हैं

मुझे याद है किसी समय इलाहाबाद के उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र
में हमारे एक नाटक का रिहर्सल चल रहा था ... तो एक दिन उस समय के मंच के
जाने माने और अनुभवी व्यक्तित्व सान्याल जी (पूरा नाम याद नहीं) ने हमें
अपना बहुमूल्य एक घंटा दिया था ...उनकी बहुत सी बातें तो व्यक्तित्व में
उसी समय विलय हो गयीं और जीवन मन्त्र बन गयीं ... चंद याद हैं आज भी ...
उन्हों ने कहा था ... यदि हम कला या साहित्य की किसी भी विधा में जाएँ,
अपने आप को कलाकार या साहित्यकार कहलाने का हकदार मानें ...तो हमारा पहला
दायित्व यही है कि हम संवेदनशील हों...हमें समाज की हर हरकत को उसकी
सम्पूर्णता के साथ अनुभव करने की आवश्यकता होगी ... हम उतनी ही ईमानदारी
और उतनी ही सम्पूर्णता से अपनी अभिव्यक्ति समाज तक पहुंचा सकते हैं जिनती
सम्पूर्णता से उसे हमने समाज से ग्रहण किया है ... अगर आप अपना कटोरा
औंधा कर के चलेंगे तो वो टन टन तो करेगा पर अंदर से खाली ही रहेगा ...
समाज में अगर किसी के साथ अन्याय हो और आपको नींद आ जाय या किसी के दुःख
देख कर आपको हंसी आये तो आप सच्चे अर्थों में कलाकार, लेखक, या समाजसेवी
कहलाने के हकदार नहीं हैं ... आप सिवाय कागज़ के फूलों से ज्यादा कुछ
नहीं... आप किसी घटना को उस की उसी तीव्रता के साथ अनुभव करने में अगर
सक्षम हैं.. तो आपको शायद किसी विधा की ट्रेनिंग लेने या अभ्यास करने की
भी आवश्यकता न होगी ... आपको सिर्फ ईमानदारी से संवेदनशील होना होगा ...
किसी घटनाको उसकी सम्पूर्णता के साथ ग्रहण करना होगा ... और उसके बाद
अभिव्यक्ति जो आएगी वो निश्चय ही आपकी मौलिक होगी .......और ये बातें
मुझे जीवन के हर मोड़ पर याद आ जाती हैं...
..............(आज इतना ही )

Posted via email from हरफनमौला

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

जहर नहीं था प्यार था उम्मा उम्मा (पद्म सिंह)

मित्र  मिलन का पर्व था दिल्ली के  दरबार
सात फ़रवरी दिन रहा छुट्टी और रविवार
छुट्टी और रविवार, तार कुछ ऐसे जुड गए
जलने वालों के हाथों से तोते उड़ गए
**
सब ऐसे मिलते रहे जैसे हों परिवार
प्रेम प्यार ऐसा बहा रहा  न पारावार
रहा  न पारावार मित्र फिर मिला करेंगे
भग्न ह्रदय को एक दुसरे सिला करेंगे
**
चर्चा हुई बड़ी किसी को मत दो गाली
बच्चे भी देखो ब्लागर मत बन जा खाली
अब तकनीकी ज्ञान अजय झा शेयर करेंगे
बाकी फिर मिल बैठ कर फिर फेयर करेंगे
**
चाय स्नैक्स का दौर था लंच रहा स्वादिष्ट
प्यारा सा माहौल था, सभी मित्र थे शिष्ट
सभी मित्र थे शिष्ट, बहुत कुछ सीखा जाना
नहीं रहा कोई वहां अनबुझ अनजाना
**

Posted via email from हरफनमौला

दिल्ली ब्लागर मीट (पद्म सिंह)

आज की दिल्ली में हुई ब्लागर मिलन समारोह में मैंने भी शिरकत की ...(खा- म-खा.....??) मुझसे वहां श्री  अविनाश वाचस्पति  जी के अतिरिक्त कोई परिचित नहीं था... यद्यपि मिलन काफी अच्छे माहौल में सहजता से संपन्न हुआ कई विषयों पर चर्चा हुई पर कहीं न कहीं चर्चा  ब्लाग जगत कि चिर परिचित समस्या के इर्द गिर्द घूमती रही ... पर  तकनीकी विषयों पर भी बहुत सार्थक बात हुई जिनपर जल्दी है पोस्टें आने वाली हैं ....... चर्चा ये भी हुई कि हम पश्चिम की चकाचौंध में अपने मूल्यों को न भूलें ... जो जहां अच्छा है ग्राह्य है पर अपने मूल्यों के अपमान की कीमत पर नहीं ....... जहां राजीव तनेजा जी कविता जी सतीश सक्सेना जी के साथ साथ लखनऊ से आये श्री सर्वत जमाल जी जैसे ब्लोगर थे तो मेरे जैसे नवोदित ब्लागर भी ..(मुझे सब के नाम याद नहीं हैं). फोटो शोटो खिची ... ब्लॉग पते का लेन देन हुआ ... खाना शाना सब ठीक रहा .. ब्लाग से सम्बंधित तकनीकी और सामाजिक विषयों पर भी चर्चा हुई ..... और खुशनुमा माहौल में समापन भी हुआ ..... शाम तक दो तीन पोस्टें भी आ गयीं इस बारे में ... पर इस बात को देख कर आश्चर्य हुआ(दुःख नहीं) कि किसी ब्लॉग में मेरा ज़िक्र तक नहीं था ... जब कि वहां चर्चाएँ थी कि हर व्यक्ति अपने शहर में ब्लोगर मीट्स आयोजित करे और नए ब्लोगर्स को उत्साहित करे ... परन्तु कुछ चीज़ें सीखने को मिली कि अच्छा ब्लागर बनना है तो बाजार की भी नब्ज़ देखो .... मजमा लगे इस के लिए डुगडुगी बजानी होगी ... तो भैया मै तो न मजमे वाला हूँ और न मेरे से डुगडुगी बजेगी ... अगर मुझे अच्छे एक भी पाठक से टिप्पणी, सलाह या आलोचना मिल जाती है  तो मुझे वो अधिक स्वीकार है ....अब ये ब्लोगर मिलन मेरे लिए ज़हर है कि प्यार है ..... भविष्य तय करेगा ...... इसी लिए इस पोस्ट का शीर्षक डुगडुगी वाला रखा है ...... अंत में अजय झा जी को पुनः इस मीट और बिना मीट के ट्रीट के लिए बधाई और धन्यवाद देते हुए कुछ छंद तुरत फुरत में पका कर पेश है .... स्वाद लें


यद्यपि इस विषय पर लिखते लिखते लेखनियां घिस गयीं पर इन्हें शर्म न आई ........ और आएगी भी नहीं शायद ...... पर फिर भी लिखना पड़ता है --


ऐसा ये जनतंत्र है जैसी कोई रेल

नेता कुर्सी के लिए करते  ठेलमपेल

करते ठेलामपेल करो अबकी कुछ ऐसा

छीलें जाकर घास चरावें अपना भैंसा

 

क्षेत्र वाद, भाषा वाद   इस तरह के नासूर हैं जो अपने ही तन को काट देने को आतुर दीखते हैं ... क्या सोचेंगे ऐसी सोच वालों को --

अपनी अपनी ढपलियाँ अपना अपना राग

क्षेत्रवाद के नाम पर, भाल लगाया दाग

भाल लगाया दाग, भारती मैया रोती

इस से अच्छा होता यदि मै बांझन होती

 

भारत जैसे संप्रभुता संपन्न और एशिया की एक महाशक्ति होने के बावजूद इस के पडोसी जब देखो हमारी सहिष्णुता का मजाक उड़ाते हैं और ओछी हरकतें करने से बाज नहीं आते ... बंगला देश और पाकिस्तान तो जग जाहिर है ... आजकल माओवादी नेपाल भी भारत को तिरछी नज़र से देखता है और श्रीलंका चाइना को अपने सागर में पोस्ट बनाने देने की दिशा में बढ़ सकता है ... क्या ये ढुलमुल नीति हमेशा कारगर रहेगी ...? या फिर कुछ इस तरह होना चाहिए ......

एक  बांग्ला देश है, दुसरा पाकिस्तान

चीन और नेपाल भी, खींचा करें कमान

खींचा करें कमान, सिरी लंका क्या कम है

एक बार अजमा लो जिसमे जितना दम है 

**


मौसम ने बसंत और होली दोनों  की मस्ती की खबर दे दी है .... होली अभी दूर है पर मन  अभी से मस्त होने लगे तो क्या करिये ... सो उतर पड़े कुछ छंद बसंत और होली दोनों से संबद्द कर के मज़े लीजिए


रुत बासंती देख कर, वन में लग गयी आग

धरती बदली से कहे, आजा खेलें फाग

आजा खेलें फाग, भाग जागे मनमौजी

रंगों जिसे पाओ मत खोजो औजी भौजी

**

ऐसा सुघड़ बसंत है, रंगा चले सियार

मन सतरंगी हो चले, बिना किसी आधार

बिना किसी आधार, बुजुर्गी ऐसी फड़की

बुढिया भी दिखने लगती है कमसिन लड़की

**

फागुन आया भाग से भर ले दो दो घूट

दो दिन की है जिंदगी फिर जायेगी छूट

फिर जायेगी छूट, अभी मस्ती में जी ले

फिर फागुन का पता नहीं है पी ले पी ले  

Posted via email from हरफनमौला

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

रात बहुत जज्बाती होगी

शाम धुंधलके में टहनी पर
चिड़िया कोई गाती होगी
मित्र हमारे पीछे अपनी
तन्हाई बतियाती होगी
एक कसक यादों की मन में
वही तुम्हारी थाती होगी
याद किसी की आती होगी

चाँद उफक पर धीरे धीरे
नज़रों से गिर जाता होगा
अश्रु मचल कर पलकों पलकों
अंधियारा घिर आता होगा
देर रात जलती आँखों में
नींद नहीं फिर आती होगी
रात बहुत जज्बाती होगी

Posted via email from हरफनमौला