सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

ओ माँ....... (अजन्मा संवाद )

ओ माँ .....
पिता तो फिर पिता
तुमने भी न जाना
दर्द मेरा
रोशनी से पूर्व ही
विधि में लिखा मेरे अँधेरा
क्या नहीं मै,
प्यार का परिणाम
या बस वासना का
क्या नहीं फल एक माँ की
साधना का
बिम्ब हूँ
प्रतिरूप रूप तेरी कामना का
दीप हूँ मै
भक्ति का आराधना का
बंद कर आँखे
मुझे देखो
मुझे छू लो
तुम्हारा अंश हूँ माँ
दृष्टि को बदलो
मुझे सोचो
तुम्हारा वंश हूँ माँ
है नहीं भाषा
कि मै तुमको पुकारूँ
तन सजग भी नहीं
मै खुद को बचा लूँ
शक्ति हूँ
पर अभी तो अव्यक्त हूँ मै
तुम्हरी मज्जा
तुम्हारा रक्त हूँ मै
मै हजारों साल
तुमको खोजती
बहती गगन में
आज जब पाने चली
तन का घरोंदा
रोक लो माँ
मत मुझे मारो
ज़रा सोचो
तुम्हारा स्वप्न हूँ मै

करो अब साकार
देखो तुम्हारा
प्रतिबिम्ब हूँ मै
हर कठिन पल का
अडिग आलम्ब हूँ मै
बड़ी हो कर जो
कहोगी वो करुँगी
तुम कहो पानी भरो
पानी भरूंगी
तुम कहो अम्बर
धरा पर खींच दूंगी
स्वप्न तुम बोना
मै उन को सींच दूंगी
प्रेम, करुणा हूँ सदय हूँ
बुद्धि से ज्यादा हृदय हूँ
रण अगर जीवन बने तो
हार में निश्चय विजय हूँ
और ये सब रूप हैं
प्रतिरूप तेरे
रुक सके कब तक भला
तम से सवेरे
तोड़ कर प्राचीर
नव युग का सृजन कर
मलिन पूर्वाग्रहों का
पल में शमन कर
और मुझको
प्यार् का आभास दे माँ
मुझे जीवन के लिए
एक आस दे माँ
यही अभिलाषा
तुम्हारा रूप पाऊं
रश्मि बन छिटकूं
धारा को जगमगाऊं
किन्तु यदि
किंचिद समय से डर रही हो
कहीं तुम भी
भ्रूण में ही मर रही हो

किन्तु जननी हो
करो यह धारणा माँ
अंश हूँ तेरा
मुझे मत मारना माँ
रूप हूँ तेरा
मुझे मत मारना माँ

Posted via email from हरफनमौला

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