सोमवार, 28 नवंबर 2011

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Debate
आंसुओं से कब भला धुलती तमा तकदीर की

शान्ति पलती है हमेशा साये मे शमशीर की

 

 

Posted via email from पद्म सिंह का चिट्ठा - Padm Singh's Blog

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

भ्रष्टाचार - कारण और निवारण

पिछले कुछ दिनों से अचानक एक मुद्दा तूफान की तरह उठा और पूरे भारत मे चर्चा का विषय बन गया... ऐसा नहीं कि यह पहले कोई मुद्दा नहीं था या कभी उठाया नहीं गया किन्तु जिस वृहद स्तर पर पूरे देश मे इसपर चर्चा हुई...
लोग एकजुट हुए वह अपने आप मे संभवतः पहली बार था... यह मुद्दा है भ्रष्टाचार का। जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो दो प्रश्न प्रमुखतासे खड़े होते हैं। पहला तो यह कि आखिर भ्रष्टाचार का श्रोत कहाँ है...भ्रष्टाचार के कारण क्या हैं... और दूसरा प्रमुख प्रश्न है कि इसकानिवारण कैसे हो। हम यहाँ कुछ भौतिक और मनोवैज्ञानिक कारकों पर विचार करतेहैं -
भ्रष्टाचार का श्रोत अथवा कारण—
1- नैतिकता पतन- जैसा कि इसके नाम से ही इसका पहला श्रोत स्पष्ट होता है,आचरण का भ्रष्ट हो जाना ही भ्रष्टाचार है। आचरण का प्रतिनिधित्व सदैवनैतिकता करती है। किसी का नैतिक उत्थान अथवा पतन उसके आचरण पर भी प्रभावडालता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति और सामाजिक परिवेश मे बच्चों के नैतिकउत्थान के प्रति लापरवाही बच्चे को पूरे जीवन प्रभावित करती है। एकबच्चा दस रूपये लेकर बाज़ार जाता है। दस रूपये मे से अगर दो रूपये बचतेहैं तो चाहे घर वालों की लापरवाही अथवा छोटी बात समझ कर अनदेखा करने के
कारण, बच्चा उन दो रूपयों को छुपा लेता है और इसी स्तर पर भरष्टाचार कीपहली सीढ़ी शुरू होती है। अर्थात जब जीवन की पहली सीढ़ी पर ही उसे उचितमार्गदर्शन, नैतिकता का पाठ, और औचित्य अनौचित्य मे भेद करने ज्ञान उसकेपास नहीं होता तो उसका आचरण धीरे धीरे उसकी आदत मे बदलता जाता है। अतःभ्रष्टाचार का पहला श्रोत परिवार होता है जहां बालक नैतिक ज्ञान के अभावमे उचित और अनुचित के बीच भेद करने तथा नैतिकता के प्रति मानसिक रूप सेसबल होने मे असमर्थ हो जाता है।
2- शार्टकट की आदत – यह मानव स्वभाव होता है कि किसी भी कार्य को व्यक्तिकम से कम कष्ट उठाकर प्राप्त कर लेना चाहता है। वह हर कार्य के लिए एक छोटा और सुगम रास्ता खोजने का प्रयास करता है। इसके लिए दो रास्ते हो सकते हैं... एक रास्ता नैतिकता का हो सकता है जो लम्बा और कष्टप्रद भी हो सकता है और दूसरा रास्ता है छोटा किन्तु अनैतिक रास्ता। एक मोटर साइकिल चालक जिसके पास पर्याप्त प्रपत्र नहीं हैं। उसके लिए कई सौ रूपये जुर्माने अथवा निरुद्ध करने का प्रावधान है, किन्तु वह खोजता है आसान और छोटा रास्ता। वह कोशिश करता है कि उसे नियमानुसार अर्थदण्ड के अतिरिक्त किसी छोटे दण्ड से छुटकारा मिल जाय। इसके लिए वह यह जानते हुए कि वह भ्रष्टाचार स्वयं भी कर रहा है और ट्राफिक हवलदार को भी इसके लिए बढ़ावा दे रहा है, नियम तोड़ने से नहीं हिचकता और किसी प्रभावी व्यक्ति से दबाव डलवा कर, कोई बहाना बनाकर अथवा कुछ कम अर्थदण्ड का लालच देकर वह आसानी से छुटकारा पाने की कोशिश करता है।
3- आर्थिक असमानता - कई बार परिवेश और परिस्थितियाँ भी भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार होती हैं। हर मनुष्य की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। जीवन यापन के लिए के लिए धन और सुविधाओं की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं। विगत कुछ दशकों मे पूरी दुनिया मे आर्थिक असमानता तेज़ी से बढ़ी है। अमीर लगातार और ज़्यादा अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब को अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जब व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ सदाचार के रास्ते पूरी नहीं होतीं तो वह नैतिकता पर से अपना विश्वास खोने लगता है और कहीं न कहीं जीवित रहने के लिए अनैतिक होने के लिए बाध्य हो जाता है। 
4- महत्वाकांक्षा- कोई तो कारण ऐसा है कि लोग कई कई सौ करोड़ के घोटाले करने और धन जमा करने के बावजूद भी और धन पाने को लालायित रहते हैं और उनकी क्षुधा पूर्ति नहीं हो पाती। तेज़ी से हो रहे विकास और बादल रहे सामाजिक परिदृश्य ने लोगों मे तमाम ऐसी नयी महत्वाकांक्षाएं पैदा कर दी हैं जिनकी पूर्ति के लिए वो अपने वर्तमान आर्थिक ढांचे मे रह कर कुछ कर सकने मे स्वयं को अक्षम पाते हैं। जितनी तेज़ी से दुनिया मे नयी नयी सुख सुविधा के साधन बढ़े हैं उसी तेज़ी से महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ी हैं जिन्हें नैतिक मार्ग से पाना लगभग असंभव हो जाता है। ऐसे मे भ्रष्टाचार के द्वारा लोग अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए प्रेरित होते हैं। 
5- प्रभावी कानून की कमी- भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण यह भी है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए या तो प्रभावी कानून नहीं होते हैं अथवा उनके क्रियान्वयन के लिए जो सिस्टम का ठीक नहीं होता है। सिस्टम मे तमाम  सी खामियाँ होती हैं जिनके सहारे अपराधी/भ्रष्टाचारी को दण्ड दिलाना बेहद मुश्किल हो जाता है।
6- कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती हैं जहाँ मनुष्य को दबाव वश भ्रष्टाचार करना और सहन करना पड़ता है। इस तरह का भ्रष्टाचार सरकारी विभागों मे बहुतायत से दिखता है। वह चाह कर भी नैतिकता के रास्ते पर बना नहीं रह पाता है क्योंकि उसके पास भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए अधिकार सीमित और प्रक्रिया जटिल हैं।
निवारण-
1- कठोर और प्रभावी व्यवस्था- दुनिया के किसी भी देश मे भ्रष्टाचार और अपराध से निपटने के लिए कठोर और प्रभावी कानून व्यवस्था का होना तो अति आवश्यक है ही... साथ ही इसके प्रभावी मशीनरी के द्वारा प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जाना भी बेहद आवश्यक है। दुनिया भर मे कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस और अन्य सरकारी मशीनरियाँ काम करती हैं। अब लगभग हर देश मे पुलिस, फायर सर्विस जैसी तमाम सरकारी सहाता के लिए एक यूनिक नंबर होता है जिसके मिलाते ही वह सुविधा आम लोगों को मिलती है। लेकिन यदि कोई रिश्वत मांगता है अथवा भ्रष्टाचार करता है तो ऐसा कोई सीधी व्यवस्था नहीं दिखती है कि एक फोन मिलाते ही भ्रष्टाचार निरोधी दस्ता आए  और पीड़ित की सहायता करे और भ्रष्ट के खिलाफ कार्यवाही करे।
2- आत्म नियंत्रण और नैतिक उत्थान- यह एक हद तक ठीक है कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक कडा कानून होना आवश्यक है किन्तु इस से भ्रष्टाचार पर मात्र तात्कालिक और सीमित नियंत्रण ही प्राप्त किया जा सकता है भ्रष्टाचार समाप्त नहीं किया जा सकता है। सत्य के साथ जीना सहज नहीं होता, इसके लिए कठोर आंत्म नियंत्रण त्याग और आत्मबल की आवश्यकता होती है। जब तक हमें अपने जीवन के पहले सोपानों पर सत्य के लिए लड़ने की शक्ति और आत्म बल नहीं मिलेगा भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलना संभव नहीं है। दुनिया मे उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ावे के साथ नैतिक शिक्षा के प्रति उदासीनता बढ़ी है। पश्चिमी शिक्षा पद्धति ने स्कूलों और पाठ्यक्रमों से आत्मिक उत्थान से अधिक भौतिक उत्थान पर बल मिला है जिससे बच्चों मे
ईमानदारी और नैतिकता के लिए पर्याप्त प्रेरकशक्ति का अभाव देखने को मिलता है। बचपन से ही शिक्षा का मूल ध्येय धनार्जन होता है इस लिए बच्चों का पर्याप्त नैतिक उत्थान नहीं हो पाता है। अतः शिक्षा पद्धति कोई भी हो उसमे नैतिकमूल्य, आत्म नियंत्रण, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य जैसे विषयों का समावेश होना अति आवश्यक है।
3- आर्थिक असमानता को दूर करना- आर्थिक असमानता का तेज़ी से बढ़ना बड़े स्तरपर कुंठा को जन्म देता है। समाज के आर्थिक रूप से निचले स्तर पर आजीविकाके लिए संघर्ष किसी व्यक्ति के लिए नैतिकता और ईमानदारी अपना मूल्य खोदेती है। पिछले दिनों योजना आयोग ने गावों के लिए 26 रूपये और शहरों के
लिए 32 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्च को जीविका के लिए पर्याप्तमाना, और यह राशि खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना जाएगा, जबकि यहतथ्य किसी के भी गले नहीं उतारा कि इस धनराशि मे कोई व्यक्ति ईमानदारीके साथ अपना जीवनयापन कैसे कर सकता है। गरीबी और आर्थिक असमानता भी जब हद से बढ़ जाती है तो नैतिकता अपना मूल्य खो देती है यह हर देश काल के लिए एक कटु सत्य है कि एक स्तर से अधिक आर्थिक/सामाजिक असमानता ने क्रांतियों  जन्म दिया है। इस कारण किसी भी देश की सरकार का प्रभावी प्रयास होनाचाहिए कि आर्थिक असमानता एक सीमा मे ही रहे।इसके अतिरिक्त और भी बहुत से प्रयास किए जा सकते हैं जो भ्रष्टाचार को कम करने अथवा मिटाने मे कारगर हो सकते हैं परंतु श्रेयस्कर यही है कि सख्त और प्रभावी कानून के नियंत्रण के साथ नैतिकता और ईमानदारी अंदर से पल्लवित हो न कि बाहर से थोपी जाय।
.... पद्म सिंह

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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

दिल पे मत ले यार !

किसी व्यक्ति ने इसे कुमार विश्वास के पेज पर पोस्ट किया हुआ था..
आप हँसते हँसते पागल हो जाओगे..कसम से..
दिग्विजय सिंह -
  • दिग्विजिय सिंह की लोकप्रियता को देखते हुए ज़ी टीवी जल्द ही उन्हें लेकर एक सीरियल शुरू करने वाला है…अगले जन्म मुझे घटिया ही कीजो!
  • दिग्विजय सिंह के लिए बड़ा झटका…पता लगा है कि कांग्रेस के झंडे में जो हाथ है…वो भी आरएसएस का है!
  • अफसोस…ओसामा अपनी वसीयत 2001 में लिख गए। अगर 2011 में लिखी होती तो ऐबटाबाद की हवेली दिग्विजय सिंह के नाम कर देते!
  • दिग्विजय सिंह का कहना है कि मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। मैंने ओसामा जी नहीं, ओसामा जीजा जी कहा था!
  • दिग्विजय सिंह का कहना है कि जब मुझ जैसा आदमी ज़िंदा घूम रहा है तो अफज़ल गुरू को फांसी क्यों दी जाए?
  • दिग्विजय सिंह भारत के सबसे भरोसेमंद नेता हैं… क्योंकि वो ISI मार्का हैं!
  • सवाल-जब अक्ल बंट रही थी तब तुम कहां थे? दिग्विजय-मैं उस समय राहुल बाबा को ढूंढने गया हुआ था…पता नहीं वो लाइन तोड़कर कहां चले गए थे?
  • दिग्विजय सिंह के इस बयान के बाद कि वो अपने पाप धोने हरिद्वार जाएंगे, प्रधानमंत्री ने ‘गंगा सफाई अभियान’ के लिए दस हज़ार करोड़ की अतिरिक्त राशि मुहैया करवा दी है!
शरद पवार-
  • साल 20030…दो लड़के पार्क में बैठे बातें कर रहे हैं…पहला- तुम रोज़ी-रोटी के लिए क्या करते हो…दूसरा-सुबह अख़बार बांटता हूं, फिर दस घंटे नौकरी करता हूं, शाम को ट्यूशन पढ़ाता हूं, रात में चौकीदारी करता हूं…मेरी छोड़ो, तुम अपनी बताओ, तुम्हें मैंने कभी कुछ करते नहीं देखा…पहला-यार, क्या बताऊं, आज से दो सौ पीढ़ी पहले हमारे यहां एक शरद पवार हुए थे…वो इतना कमा गए कि हमें आज तक कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ी!
  • फोर्ब्स मैगज़ीन ने अपने ताज़ा अंक में उन ख़रबपतियों की सूची जारी की है जिन्हें शरद पवार ने उधार दे रखा है!
  • शरद पवार ने हाथ दे कर रिक्शे वाले को रोका और पूछा…बस स्टैंड चलना है…कितने पैसे दोगे?
  • शरद पवार और सुरेश कलमाडी से विशाल भारद्वाज इतने इम्प्रेस हैं कि उन्हें लेकर एक बार फिर से ‘कमीने’ फिल्म बनाना चाहते हैं!
  • शरद पवार के करनामों से प्रभावित हो भारतीय डाक विभाग जल्द ही उन पर एक ‘डाकू टिकट’ जारी करने जा रहा है।
  • SWISS GOVERNMENT को शक़ है कि SWISS BANK ने शरद पवार के पास SAVING ACCOUNT खुलवा रखा है!
  •  
मनमोहन सिंह -
  • मनमोहन सिंह विज्ञान ही नहीं, अर्थशास्त्र में भी झोलाछाप डॉक्टर होते हैं…जैसे डॉक्टर मनमोहन सिंह!
  • मैं इसलिए कुछ नहीं बोलता क्योंकि मैडम ने एक दफा समझाया था…बातें कम, स्कैम ज़्यादा!
  • दबंग के बाद अभिनव कश्यप जल्द ही मनमोहन सिंह को लेकर इसका सीक्वल बनाने जा रहे हैं…इस बार फिल्म का नाम है-’अपंग‘!
  • ओसामा की मौत का स्वागत करते हुए मनमोहन सिंह ने एक बार फिर से सोनिया गांधी के कुशल नेतृत्व की तारीफ की है!
  • रजनीकांत के फैन्स के लिए एक अच्छी ख़बर है और एक बुरी। अच्छी ख़बर ये है कि जल्द ही ROBOT PART 2 आ रही है और बुरी ख़बर ये कि इस बार हीरो रजनीकांत नहीं, मनमोहन सिंह हैं। उनसे बड़ा ROBOT भारत में और कौन है!
  • मनमोहन सिंह को देखकर यकीन करना मुश्किल है कि उन्हें भगवान ने बनाया या फिर मैडम तुसाद ने!
  • कुछ लोगों का कहना है कि ‘मजदूर दिवस’ की तर्ज़ पर मनमोहन सिंह के सम्मान में एक दिन ‘मजबूर दिवस’ भी मनाया जाना चाहिए!
  • मनमोहन सिंह का कहना है कि वो अश्लीलता के बिल्कुल खिलाफ हैं इसलिए अपने जीते-जी किसी को EXPOSE नहीं होने देंगे!
नारायण दत्त तिवारी===
  • ओसामा की पहचान के लिए अमेरिका जल्द ही उसका डीएनए टेस्ट करवाएगा, मुझे शक़ है कि कहीं वो नारायण दत्त तिवारी का बेटा न निकले।
  • शरद पवार अपनी सारी सम्पत्ति और एनडी तिवारी अपने सारे बच्चे डिक्लेयर कर दें तो इसमें कई देशों की सारी दौलत और पूरी आबादी समा सकती है!
सुरेश कलमाडी
  • कलमाडी जैसे ही बापू की मूर्ति पर फूल चढ़ाने झुके…लाठी से धकेलते हुए आवाज़ आई…दूर हटो बेटा…वरना अहिंसा की कसम टूट जाएगी!
  • लोगों ने भी हद कर दी है…कलमाडी सुबह पार्क में RUNNING कर रहे थे…पीछे से किसी ने आवाज दी…कब तक भागोगे!
  • कलमाडी घर पहुंचे तो काफी भीग चुके थे…बीवी ने चौंक कर पूछा…इतना भीगकर कहां से आ रहे हैं…क्या बाहर बारिश हो रही है…कलमाड़ी-नहीं….तो फिर…कलमाडी-क्या बताऊं…जहां से भी गुज़र रहा हूं…लोग थू-थू कर रहे हैं!
  • कुकर्मों के लिए माफी मांगते हुए कलमाडी भगवान की मूर्ति के सामने दंडवत हो गए…मन में माफी मांगी…आंख खोली तो देखा…भगवान खुद कलमाडी के सामने दंडवत थे…बोले…बच्चा…रहम करो…जाओ यहां से…
  • “सुरेश कलमाडी एक ईमानदार, कुशल, मेहनती और देशभक्त आदमी हैं। उन जैसा सच्चा आदमी आज तक इस देश ने नहीं देखा…पूरे देश को उन पर नाज़ है” ऐसे ही फनी और मज़ेदार चुटकुलों के लिए SMS करें…5467 पर!
  • कलमाडी के इस प्रस्ताव के बाद कि आप चाहें तो लंदन ओलंपिक में मेरे अनुभव का फायदा उठा सकते हैं, इंग्लैंड के राजकुमार ने सीधा प्रधानमंत्री को फोन लगाया और कहा…इसे समझा लो…वरना मेरा हाथ उठ जाएगा!
  • If ‘K’ stands for Kalmadi…तो आप उसे KBC भी कह सकते हैं…अब ये मत पूछना कि BC क्या होता है!.....
राहुल गांधी
  • “तेल की कीमतें बढ़ने से महंगाई बढ़ेगी। महंगाई बढ़ने से आम आदमी का तेल निकलेगा और जब आम आदमी तेल देने लगेगा तो महंगाई खुद-ब-खुद कम हो जाएगी”-राहुल गांधी
    इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी में बहुत प्रतिभा छिपी हुई है मगर देश की भलाई इसी में है कि वो इसे छिपाकर ही रखें!
    हाल के सालों में जिस तेज़ी से पेट्रोल की कीमतें बढ़ी हैं अगर उसी अनुपात में राहुल गांधी का IQ भी बढ़ता तो वो नासा में वैज्ञानिक होते!

    ये पूछे जाने पर कि अब तक वो अन्ना हज़ारे का हाल जानने जंतर-मंतर क्यों नहीं गए…राहुल गांधी का कहना था कि मुझे लगा ‘अन्ना’ कोई साउथ इंडियन शख्स है, जो रजनीकांत को भारत रत्न दिए जाने की मांग को लेकर अनशन पर बैठा है!
    सुरक्षा एजेंसियों और राहुल गांधी के साथ एक ही समस्या है…intelligence failure!
     
    यह पोस्ट फेसबुक से साभार संकलित है ....मूल लेखक neeraj Badhawa

शनिवार, 10 सितंबर 2011

हम आम आदमी

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हम आम आदमी हैं
किसी 'खास' का अनुगमन हमारी नियति है
हमारे बीच से ही बनता है कोई 'खास'
हमारी मुट्ठियाँ देती हैं शक्ति
हमारे नारे देते हैं आवाज़
हमारे जुलूस देते हैं गति
हमारी तालियाँ देती हैं समर्थन ....
तकरीरों की भट्टियों मे
पकाए जाते हैं जज़्बात
हमारे सीने सहते हैं आघात
धीरे धीरे
बढ़ने लगती हैं मंचों की ऊँचाइयाँ
पसरने लगते हैं बैरिकेट्स
पनपने लगती हैं मरीचिकाएं
चरमराने लगती है आकांक्षाओं की मीनार
तभी… अचानक होता है आभास
कि वो आम आदमी अब आम नहीं रहा
हो गया है खास
और फिर धीरे धीरे .....
उसे बुलंदियों का गुरूर होता गया
आम आदमी का वही चेहरा
आम आदमी से दूर होता गया
लोगों ने समझा नियति का खेल
हो लिए उदास ...
कोई चारा भी नहीं था पास
लेकिन एक दिन
जब हद से बढ़ा संत्रास
(यही कोई ज़मीरी मौत के आस-पास )
फिर एक दिन अकुला कर
सिर झटक, अतीत को झुठला कर
फिर उठ खड़ा होता है कोई आम आदमी
भिंचती हैं मुट्ठियाँ
उछलते हैं नारे
निकलते हैं जुलूस ....
गढ़ी जाती हैं आकांक्षाओं की मीनारें
पकाए जाते हैं जज़्बात
तकरीर की भट्टियों पर
फिर एक भीड़ अनुगमन करती है
छिन्नमस्ता,……!
और एक बार फिर से
बैरीकेट्स फिर पसरते हैं
मंचों का कद बढ़ता है
वो आम आदमी का नुमाइंदा
इतना ऊपर चढ़ता है ...
कि आम आदमी तिनका लगता है
अब आप ही कहिए... ये दोष किनका लगता है?
वो खास होते ही आम आदमी से दूर चला जाता है
और हर बार
आम आदमी ही छ्ला जाता है
चलिये कविता को यहाँ से नया मोड़ देता हूँ
एक इशारा आपके लिए छोड़ देता हूँ
गौर से देखें तो हमारे इर्द गिर्द भीड़ है
हर सीने मे कोई दर्द धड़कता है
हर आँख मे कोई सपना रोता है
हर कोई बच्चों के लिए भविष्य बोता है
मगर यह भीड़ है
बदहवास छितराई मानसिकता वाली
आम आदमी की भीड़
पर ये रात भी तो अमर नहीं है !!
एक दिन ....
आम आदमी किसी "खास" की याचना करना छोड़ देगा
समग्र मे लड़ेगा अपनी लड़ाई,
वक्त की मजबूत कलाई मरोड़ देगा
जिस दिन उसे भरोसा होगा
कि कोई चिंगारी आग भी हो सकती है
बहुत संभव है बुरे सपने से जाग भी हो सकती है
और मुझे तो लगता है
यही भीड़ एक दिन क्रान्ति बनेगी
और किस्मत के दाग धो कर रहेगी
थोड़ी देर भले हो सकती है '
मगर ये जाग हो कर रहेगी
थोड़ी देर भले हो सकती है
मगर ये जाग हो कर रहेगी


...... पद्म सिंह 09-09-2011(गाजियाबाद)

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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

वाह री सरकार वाह तेरे खेल

नमस्कार मित्रों.... महीने भर से भ्रष्टाचार की लड़ाई और अन्य व्यस्तताओं के चलते ब्लॉग पर सक्रिय नहीं रहा... फिर से आता हूँ इस गली... किसी की पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए अचानक उतर आई एक तुरंती से आगाज़ करता हूँ-

वाह री सरकार वाह तेरे खेल

बाबा पर अत्याचार अन्ना को जेल

धारा 144 और अनशन का रोकना

खामखा मनीष और दिग्गी का भौंकना

संसद के नाम पर जनता की न सुनना

अपनी बात कहना अपना हित चुनना

राहुल की चुप्पी मनमोहन का मौन

समझो इस खेल का खिलाड़ी है कौन

सीबीआई करती है मार्कशीट की जाँच

सरकारी तन्त्र का, ये नंगा नाच

उठती हर आवाज़ डंडों मे दबा दो

सीबीआई, आईबी टीम पीछे लगा दो

ये चुन कर आए हैं मालिक हैं देश मे

घूम रहे हैं कुत्ते खादी के भेष मे

भटक गया मानस मन जनता लाचार है

महंगाई,बे-रोजगारी की मार है

बाज़ आओ अब तो सत्ता के दलालो

अब भी मौका है अपनी लाज को बचा लो

वरना तुम भी काल-ग्रास बन जाओगे

इतिहास लिखने वालो इतिहास बन जाओगे

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

बंदर बनाम टोपी वाले

कृपया ध्यान दें ---यह पोस्ट मेरे दूसरे ब्लॉग पद्मावलि पर भी प्रकाशित हो चुकी है... संभव है आपने यह पोस्ट पढ़ ली हो..

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एक कहानी बचपन से सुनते आये हैं… एक टोपी वाला जंगल से गुज़र रहा था. दोपहरी चटख रही थी. दो घड़ी आराम करने की नीयत से वह एक पेड़ के नीचे अपनी टोपियों की टोकरी रखकर सो गया… थोड़ी देर में जब उसकी तन्द्रा टूटती है तो उसने देखा कि बंदरों के एक झुण्ड ने उसकी टोपियाँ उठा ली हैं और लेकर पेड़ पर चढ गए हैं. टोपी वाला पहले तो बहुत मिन्नतें की लेकिन बंदर तो बंदर… अनुनय विनय का तरीका काम न आने पर टोपीवाले ने सहज बुद्धि का इस्तेमाल किया और बंदरों की नकल करने की आदत का फायदा उठाया. उसने टोकरी में बची हुई एक टोपी को बंदरों को दिखाते हुए अपने सर पर पहन ली… जैसा की बंदरों की आदत होती है… टोपीवाले की नकल करते हुए बंदरों ने भी टोपी सर पर रख ली…जब टोपीवाला टोपी हाथ में ले लेता तो बंदर भी टोपी हाथ में ले लेते… अंत में टोपीवाले ने अपनी टोपी सर से उतार कर जोर से ज़मीन पर दे मारी… लेकिन ये क्या ? एक भी बंदर ने ऐसा नहीं किया ? बल्कि लगे खिलखिला कर हँसने…बल्कि बंदरों ने टोपी फिर से अपने सिर पर धारण कर ली… टोपी वाला अचंभित…उसने लाख दिमाग लगाया लेकिन माजरा कुछ समझ में नहीं आया…

हर टोपीवाला अपने इतिहास से सीखता है कि अपनी टोपी बचाने के लिए क्या तरीके अपनाए जाते हैं…उनसे पहले के टोपीवालों ने अपनी टोपियाँ कैसे बचाई थीं?… और हमेशा उन्हीं तरीकों का प्रयोग भी करते रहे… लेकिन उधर बंदरों ने भी पीढ़ी दर पीढ़ी टोपी वालों का खेल देखा था… बंदरों ने टोपीवालों की चालाकियों को बखूबी समझ लिया था और अपने आने वाली पीढ़ियों को भी टोपी वालों की चालाकियों से सचेत कर दिया…. समय के साथ साथ साथ सभी ने अपनी गलतियों से सीख ली और समझ लिया था कि टोपी वाले कैसे उनकी कमजोरियों का फायदा उठाते हैं… जबकि टोपी वाले पीढ़ी दर पीढ़ी बंदरों को एक ही तरीके से जीतने की कोशिश करते रहे …और कभी कल्पना नहीं की थी कि बंदर भी कभी अपनी पुरानी कमियों से सीख लेकर कहीं अधिक चालाक हो जायेंगे… यही कारण कि बंदरों ने अचानक नयी गुलाटी खाई और टोपी वालों को चारों खाने चित कर दिया…

यही नहीं कालान्तर में धीरे धीरे बंदरों ने अपनी नस्ल को और उन्नत करने के लिए एक संकर नस्ल की मादा को  अपने परिवार में लाये.. संकर नस्ल हमेशा चालाक होती है ये वैज्ञानिकों का कहना है.. फिर चालाक बंदरों ने मनुष्यों जैसे वेश धर लिए और मनुष्यों में जा मिले.. कईयों ने सफ़ेद खद्दर के कुर्ते बनवाए सर पर गाँधी टोपी पहनी और चुनाव लड़ते हुए इंसानी कमजोरियों का फायदा उठाते हुए सत्ता में भी अपनी पैठ बना ली…अपने हिसाब से क़ानून बनाने लग गए.. अपने वंशजों को समाज के हर क्षेत्र में फैला दिए.. किसी को उद्योगपति, किसी को मठाधीश बनाए तो किसी को सरकारी मशीनरी में फिट कर दिया… मनुष्यों के वेश में मनुष्यों को लूटने के लिए सिंडिकेट बना लिए… मनुष्यों द्वारा दुरियाए जाने वाले बंदरों ने मनुष्यों पर ही राज करना शुरू कर दिया… अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुसार तरह तरह की गुलाटियाँ खाना और कलाबाजियाँ करना नहीं भूले…. बंदरों ने इस बार मनुष्यों की मान मर्यादा की प्रतीक टोपी को निशाना नहीं बनाया बल्कि उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी धन दौलत पर हाथ साफ़ करने लगे और अरबों खरबों रूपये हड़प कर उड़न खटोलों पर जा चढ़े और विदेशों में छुपा आये..अपने पास रखने का जोखिम भी नहीं उठाया क्योंकि बंदर अपनी आदतों को जान चुके थे.. किसी तरह का खतरा मोल नहीं ले सकते थे . इधर इंसान हलाकान परेशान होने लगे लेकिन हमेशा अपनी लालच का शिकार हो इन्हीं बंदरों को चुन कर सत्तासीन करते रहे… कुछ लोगों को इन बंदरों पर शक भी हुआ और कुछ की तन्द्रा भी टूटी… समस्या विकट थी… चारों तरफ धन दौलत के अम्बार लेकर उड़न खटोलों पर चढ़े हुए बंदर ही बंदर और अपना पेट पालने में हैरान हलाकान औंघाई हुई जनता… खलबली तब मची जब चंद जागे हुए लोगों द्वारा समस्या के हल खोजे जाने लगे…

इंसान सदा से हर समस्या का हल धर्म-गुरुओं, परम्पराओं और पुरातन-पोथियों में खोजता रहा है, “महाजनो येन गतः स पन्थाः” की तर्ज़ पर आँख मूँदे झुण्ड की शक्ल में चलता रहा है. इस बार भी इतिहास खंगाले गए… पोथियाँ पलटी गयीं… पर इन्हें इतिहास में फिर एक टोपीवाला ही मिला जिसका रास्ता ही सबसे प्रभावी लगा… मिल जुल कर कुछ लोग एक टोपी वाला खोज लाये… क्योंकि उनका अनुभव बताता था कि टोपी वाले ही उत्पाती बंदरों से निपटते आये हैं… साथ ही एक भगवा धारी बाबा ने अपनी तरफ से मोर्चा खोल दिया… अब बंदरों में खलबली मच गयी…. घबराए हुए बंदरों की अम्मा ने उन्हें समझाया बेटा ये इंसान हैं.. ये पीढ़ी दर पीढ़ी लकीर के फ़कीर होते हैं… इनकी हर अगली चाल को हम हिंदी सिनेमा के सीन की तरह आसानी से भांप सकते हैं… ये ज्यादा से ज्यादा क्या करेंगे … अनशन करेंगे… भूखे रहेंगे… सड़कों पर चिल्लायेंगे…भाषण बाज़ी करेंगे… सोशल साइट्स पर हमें कोसेंगे..गरियायेंगे … क्योंकि इनकी परंपरा यही कहती है… अहिंसा परमो धर्मः… पंचशील सिद्धांत…बस यही सब … तो इन मनुष्यों से घबराने की ज़रूरत नहीं है…

एक तरफ बाबा और एक तरफ टोपी वाला … दोनों तरफ से बंदरों पर दबाव बढ़ने लगा… यहाँ तक कि उन्हें मनुष्यों के वेश में रहना मुश्किल हो गया… और खीज में एक दिन बंदरों की मूल प्रवृत्ति उजागर हो ही गयी और खिसियाये हुए बंदर एक साथ इनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए भगवाधारी बाबा पर खौंखिया कर दौड़ पड़े… … बाबा इस अप्रत्याशित हमले से जैसे तैसे जान बचा कर निकले … उधर टोपी वालों ने अलग नाक में दम कर रखा था… रोज़ धरने की धमकी… अनशन की चेतावनी… बंदरों ने अपने कुछ चालाक और कुटिल प्रतिनिधियों को छाँट कर टोपी वालों से निपटने के लिए एक गोल बनाई और जैसे कभी इंसान ने बंदरों को लालच दिया था… आज बंदरों ने टोपीवालों को लालच दी… और टोपी वाले उनकी चाल में फंस गए…

जैसे कभी मनुष्यों ने उन्हें अपनी शर्तों और इशारों पर नचाया था… आज ये मण्डली टोपी वालों को नचाने लगी… रोज़ नई तरह की बातें… रोज़ नए तरह के पैंतरे… और लाख कोशिशों के बाद आज भी बन्दर टोपी वालों पर भारी हैं… टोपी वालों के पास पोथियों में और इतिहास के पन्नों में एक ही तरीका लिखा है इन लंगूरों से निपटने का…और कोई रास्ता अपनाते देख बंदर उन्हें बदनाम करने में लग जाते हैं.. इधर बंदर दिन ब दिन अपनी चालाकियों और गुलाटियों में परिवर्धन करते गए.. अपनी गलतियों से सीखते गए.. अपडेट होते गए… बंदरों ने लालकिले की प्राचीरों पर अपना मोर्चा लगा रखा है …चंद मनुष्यों ने पुराने जंग खाए तमंचे में तेल लगा कर तोपों से मोर्चा लेने की ठान रखी है… फिर से पुराने तरीकों पर अमल करने में लगी है .. बाकी जनता आज भी अपनी टोकरी पेड़ के नीचे रख कर सो रही है ….कई तो यह मानने को भी तैयार नहीं कि उनकी टोकरियों को खाली करने के साथ साथ बंदरों ने उनके तन से कपड़े भी उतार लिए हैं और गाँठ में रखी रोटी भी छीन ली है… उधर बंदर अपनी हर कमियों को सुधार कर मनुष्यों से निपटने के नए नए गुर सीखने में लगे हैं.

सो… टोपीवाले फिर से अनशन की तैयारियाँ कर रहे हैं… फिर से भूख हड़ताल की धमकियाँ दे रहे हैं… उधर सारे बंदर पेड़ छोड़ कर उड़न खटोलों की सवारी कर रहे हैं… और धीरे धीरे मनुष्यों के धन के साथ टोपी (धर्म) और रोटी के साथ कपड़ा और मकानों पर भी नज़र जमाये हुए हैं…. कुछ लोग बंदरों को पहचान कर भी कुछ करने में असमर्थ हैं… कुछ लोग कुछ पहचानने को तैयार नहीं हैं… और कुछ लोग तो उनकी नस्ल में शामिल होने में ही अपना सौभाग्य मानते हैं….

फिलहाल ……..बंदरों और टोपी वालों में जंग जारी है…

———————padmsingh 9716973262  21-07-2011

मंगलवार, 14 जून 2011

टकरा के एक सफीना मगर चूर हो गया …

किसी शायर ने कहा है-

तूफां के बाद बहर बदस्तूर हो गया

टकरा के एक सफीना मगर चूर हो गया


Baba-Ramdev-vs-Anna-Hazare अंततः तमाम फजीहत के बाद बाबा रामदेव ने अपना अनशन तोड़ दिया…आखिरकार सत्ता ने शक्ति और कूटनीति के दम पर जनता की आवाज़ का निर्ममता से गला घोंट दिया… सरकार अपने दंभ और हठधर्मिता के सारे स्तर पार करते हुए नौ दिन से अनशन करते हुए बाबा रामदेव के प्रति जैसी उदासीनता दिखाई उसने काँग्रेस सरकार की कुटिल मानसिकता और प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की संवेदनहीनता को उजागर कर दिया…
यह इस देश की वही  सर्वोच्च सत्ता है जो अपनी नाक के नीचे सैयद अली शाह गिलानी को भारत की एकता और अखंडता के खिलाफ़ विषवमन करने की अनुमति देती है और भारत माता की जय बोलने वाले एक निहत्थे समूह को विश्राम करते हुए आधी रात में पुलिसिया बर्बरता का शिकार बनाती है. यह वही तथाकथित सेक्युलर समूह है जिसका एक भाग बाटला हाउस मुठभेड़ में शहीद हुए इन्स्पेक्टर एम् सी शर्मा का साथ खड़े न होकर मारे गए आतंकवादियों से सहानुभूति प्रकट करता नज़र आता है और पाकिस्तान में अमेरिका के हाथों ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उसके मजहबी मानवाधिकारों की रक्षा की माँग उठाता नजर आता है जबकि वहीँ वन्देमातरम का उद्घोष करने वाले भूखे प्यासे सो रहे अनशनकारियों पर आधी रात को आँसू गैस और लाठियों के दम पर दरबदर ठोकरें खाने के लिए खदेड़ दिया जाता है…और उसपर एक जिम्मेदार मन्त्री का बयान… कि हमने तो सुप्रभात में सबको जगाया था. उन्हीं मन्त्री जी के द्वारा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को जी कह कर संबोधित किया जाता है और भगवाधारी राष्ट्रभक्त को ठग कह कर संबोधित किया जाता है.


प्रश्न उठता है कि एक दिन पहले तक जिस भगवाधारी बाबा से घबरा कर देश की सर्वोच्च सत्ता के चार कैबिनेट मिनिस्टर उसे एयरपोर्ट पर लेने और मनाने जाते हैं, बंद होटल में पाँच घंटे तक वार्ता करते हैं, समझौते करते हैं उसी बाबा को चकमा न दे पाने पार एक दिन बाद ही आयकर और प्रवर्तन निदेशालय जैसी सरकार की जितनी भी एजेंसियाँ हैं बाबा के पीछे लगा दी गयीं. ट्रस्ट और कंपनियों की स्कैनिंग करने के लिए निर्देश दे दिए गए… सूचना मंत्रालय द्वारा एडवाइजरी जारी करवा कर मीडिया को भी दबाव में लिया जाता है और बाबा से सम्बंधित ख़बरों से बचने की सलाह दी जाती है…आचार्य बालकृष्ण की नागरिकता और पासपोर्ट सहित उनके द्वारा बनाई जा रही दवाइयों के विषय में दुष्प्रचार कर बदनाम करने की साजिश की जाती है. जहाँ कल तक सरकार बाबा को फुसलाने में लगी थी.. वहीं अपनी बात न बनते देख बाबा के पीछे संघ और बीजेपी का हाथ होने  जैसे बेहूदे आरोप मढे जाने लगे …क्या यह सब इस लिए कि बाबा रामदेव देश को जोड़ने और देश द्रोहियों द्वारा जो देश की अकूत संपत्ति विदेशों में भेजी गयी है उसे वापस लौटाने की आवाज़ उठाते हैं? यदि बाबा रामदेव ठग हैं तो उनकी अगवानी करने चार केन्द्रीय मन्त्री हवाई अड्डा क्यों गए? यदि बाबा की नीति और नीयत ठीक नहीं थी तो उनसे तीन दिनों तक सरकार मंत्रणा क्यों करती रही.  क्यों बाबा की सारी माँगें मान लेने का दावा किया गया? इससे पूर्व बाबा के धन साम्राज्य और चंदों की जाँच क्यों नहीं की गयी


वास्तविकता यह है कि कि अनशन की घोषणा करने के बाद से ही लगातार बाबा को फुसलाने धमकाने और यहाँ तक कि खरीदने तक का प्रयास किया जाता रहा.. ज्यों ही बाबा ने सरकारी दबाव के आगे झुकने से इंकार किया सरकार की गन्दी और घटिया प्रवृति हरकत में आ गयी.


इसी प्रकार अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान भी अन्ना की सभी माँगे मान लेने का झूठा आश्वासन दिया गया था… जनलोकपाल कमेटी बनते है तरह तरह की कुटिल चालें चली जाने लगीं..कभी फर्जी सीडी सामने लाकर तो कभी स्टैम्प का मुद्दा खड़ा कर के अधिवक्ता पिता पुत्र और अरविन्द केजरीवाल के छविभंजन का घृणित प्रयास किया गया, तो  कभी मुख्य मंत्रियों से राय लेने के नाम पर लोकपाल बिल में रोड़े अटकाए गए.. यहाँ तक कि सिविल सोसाइटी द्वारा की जा रही मीटिंग की लाइव रिकार्डिंग या प्रसारण की माँग भी सिरे से खारिज कर दी गयी ताकि उनके द्वारा दी जा रही अनर्गल दलीलें और कमेटी को दिग्भ्रमित करने के हथकण्डे उजागर न हो जाएँ. अन्ना हजारे के मंच पर भारत माता की तस्वीर होने पर भी खूब आक्षेप लगाए गए और उनका रिश्ता संघ से जोड़ने का प्रयास किया गया.


चार जून 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ उसको उचित और ज़रूरी बताने के लिए सरकार द्वारा बेशर्मी से तमाम बहाने गढे गए...लेकिन शायद लोकतन्त्र के इतिहास में यह घटना बेहद शर्मनाक  घटना की तरह याद की जायेगी. यह इन्दिराकालीन आपातकाल की बर्बरता की ही याद दिलाता है.लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने पांच जून १९७५ को राष्ट्र नवनिर्माण के लिए सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया था. तत्कालीन सत्तासीन काँग्रेस ने उक्त जनांदोलन के दमन के लिए रातों रात आंदोलनकारियों को जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया. उनपर पुलिसिया जुर्म ढाए गए. लोकतन्त्र का गला घोटने के लिए प्रेस पर पाबंदी लगा दी गयी.. सरकारी तानाशाही चलने के लिए इंदिरागांधी ने देश पर  आपातकाल थोप दिया. सरकार की यह निरंकुशता भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में कलंक है कई महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर काँग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी रहस्यमय चुप्पी साधे रहती हैं. रामलीला मैदान में हुए पुलिसिया अत्याचार पर भी वह मौन हैं, गुजरात दंगों के खिलाफ़ आईएएस की नौकरी छोड़ गुजरात सरकार विरोधी मुहिम में जुटे हर्ष मंदर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं.जब सारा देश अन्ना के साथ खड़ा था तो मंदर ने लिखा था मंच पर भारत माता का चित्र होने और आंदोलन में  स्वयं सेवक संघ के शामिल होने के कारण मै जंतर मंतर नहीं गया. एक बार फिर काँग्रेसी नेता बाबा रामदेव के आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक और और संघ परिवार के शामिल होने का प्रश्न खड़ा कर रहे हैं यह इस बात का द्योतक है कि इस आंदोलन को दबाने में दस जनपथ की चौकड़ी ही मुख्य भूमिका में है.
परंपरा और संविधान दोनों कहते हैं कि आंदोलन कारी जिस भी विचारधारा के हों उन्हें देश का नागरिक होने के कारण  शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात कहने और  विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार है,  दिग्विजय सिंह सरीखे काँग्रेसी नेता संघ परिवार को साम्प्रदायिक साबित करने के लिए भगवा आतंकवाद का झूठ स्थापित करने में लगे हुए हैं जबकि यही दिग्विजय सिंह सिमी जैसी राष्ट्रद्रोही और प्रतिबंधित संगठन के पक्ष में खड़े दीखते हैं, पहले से तयशुदा ओछी राजनीति के तहत काँग्रेस हमेशा की तरह देश में हो रहे किसी भी सार्थक प्रयास जो काँग्रेस को पसंद न हों, संघ या आर एस एस से जोड़ कर उसे बदनाम करने में लगी हुई है. यह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी काँग्रेस की हताशा को ही रेखांकित करता है.काले धन की वापसी को लेकर आखिर इतनी बौखलाई हुई क्यों है.सुप्रीम कोर्ट की लगातार फटकार और जर्मनी सरकार द्वारा विदेशों में काला धन जमा करने वाले कर चोरों व् भ्रष्टाचारियों की सूची उपलब्ध कराने के बावजूद सरकार किन चेहरों को छिपाना चाहती है ? इन सवालों के पीछे ही काँग्रेसी तानाशाही का राज़ छुपा हुआ है, जो बोफोर्स दलाली काण्ड का मामला उठते ही अधीर हो उठती है,
अन्ना हजारे के बाद बाबा रामदेव के आंदोलन को मिल रहा अपार जन समर्थन सत्तासीनों द्वारा अलग अलग घोटालों में हुए सार्वजनिक धन की लूट के प्रति जन आक्रोश का प्रकटीकरण है, मन्त्री और नेताओं के मुखौटे लगाए ये लुटेरे देश को लूटने में इसलिए सफल हो रहे हैं क्योंकि व्यवस्था ने जिस प्रधान मन्त्री को सार्वजनिक हितों की रक्षा की जिम्मेदारी दी है उन्होंने अपनी जवाबदेही का निर्वाह नहीं किया, उत्तर प्रदेश के भट्टा परसौल पर हुए पुलिसिया अत्याचार के बाद राहुल गाँधी वहाँ के दौरे पर गए थे, राख के ढेर में उन्होंने मानव अस्थियाँ देखने का आरोप लगाया. हालाँकि बाद में यह निराधार साबित हुआ वही राहुल गाँधी रामलीला मैदान की घटना पर आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साध लेते हैं… प्रधान मन्त्री का बयान भी घटना के तीन दिन बाद आता है… और दिग्विजय सिंह लोग अनर्गल प्रलाप करने से बाज़ नहीं आ रहे,.


बाबा रामदेव ने संत समाज के प्रबल अनुरोध और सरकार की असंवेदनशीलता  से व्यथित होकर अपना अनशन तोड़ दिया है… आगे उनकी मुहिम क्या रुख अख्तियार करती है पता नहीं लेकिन सरकार बाबा रामदेव पर विजय पाने के बाद उत्साहित है. प्रणव मुखर्जी ने बयान दे दिया कि जनलोकपाल कमेटी की बातें असंवैधानिक हैं और उनको मानना सरकार की मजबूरी नहीं है… इसे रामदेव के बाद अन्ना की मुहिम को कुचलने की अगली मुहिम के आगाज़ के रूप में देखा जाना चाहिए….
इन घटनाओं से एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि गाँधी के देश में गाँधीवादी कहलाने वाली सरकार ने  जनान्दोलन और अनशन को मनमाने ढंग से कुचलने और किसी की परवाह न करने की हठधर्मिता पर क्यों अडी है…या तो ये निर्णय सरकार की अदूरदर्शिता का परिचायक है या फिर आत्ममुग्धि का… सरकार जानती है जनता बड़ी भुलक्कड़ है और चुनाव तक सब ठीक हो जाएगा… अब देखना है जनता किसे याद रखती है और किसे भुलाती है…
.......................पद्म सिंह

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

धूप ……. पद्म सिंह

यह रचना सर्दियों में लिखी गयी थी…पद्मावलि पर प्रकाशन भी किया गया था… लेकिन इस समय इसकी प्रासंगिकता कहीं बेहतर लग रही है इसी लिए ढिबरी पर इसका पुनः प्रकाशन कर रहा हूँ….













पूरे दिन का सवेरे मज़मून गढ़ जाती है धूप

एक सफहा जिंदगी का रोज़ पढ़ जाती है धूप

मुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये

पाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप

लांघती परती तपाती खेत, घर ,जंगल, शहर

इस तरह से रास्ते पे अपने बढ़ जाती है धूप

अब्र हो गुस्ताख, शब हो, या शज़र चाहे ग्रहन

सब के इल्जामात मेरे सर पे मढ जाती है धूप

देख सन्नाटा समंदर पे हुकूमत कर चले

शहर से गुजरी कि बित्ते में सिकुड़ जाती है धूप

पूस में दुल्हन सी शर्माती लजाती है मगर

जेठ में छेड़ो तो इत्ते में बिगड़ जाती है धूप

धूप 16/01/2010 पद्म सिंह ----9716973262

रविवार, 10 अप्रैल 2011

नकटों का गाँव … पद्म सिंह

एक कहानी है….

nose 2एक गाँव में किसी व्यक्ति की नाक कट गयी थी…. पूरे गाँव के लोग उसे नकटा कह-कह कर दिन भर चिढ़ाया करते….सब नाक वालों को देख कर "’इनफीरियारिटी कोम्प्लेक्स' से ग्रसित हो गया था…  नकटे को बहुत बुरा लगता और अपने आप को  अकेला महसूस करता… एक दिन सुबह उठते  ही वह नाचने लगा, गाने लगा…  गलियों में हँसता हुआ मुस्कुराता हुआ और आत्म विभोर हो कर घूमने लगा…. पूरा गाँव सकते में था… आखिर इसे  हुआ क्या?  

किसी ने साहस कर के पूछा भाई क्या बात है आज तो बदले बदले से नज़र आ रहे हो… आनंद की सीमा नहीं है तुम्हारे, कोई खजाना हाथ लगा है? नकटा फिर भी नाचता गाता रहा कुछ नहीं बोला… पूरा गाँव इकठ्ठा हो गया… बहुत दबाव पड़ा तो इस आनंद का राज़ बताने को राज़ी हुआ…बोला मुझे रात ईश्वर के साक्षात दर्शन हुए हैं…अब भी मुझे स्वार्गिक अनुभव हो रहे हैं… लेकिन कैसे हुआ ये किसी को नहीं बताऊंगा… यह कह कर घर चला गया

चर्चा पूरे गाँव में फ़ैल गयी. लोग अकेले में मिल कर ईश्वर प्राप्ति का राज़ जानने की कोशिश में लग गए… गाँव का मुखिया भी अकेले में मिला और जैसे तैसे राज़ बताने पर राज़ी कर लिया… उसने बताया कि मेरी नाक कटने से ही ईश्वर के दर्शन हुए हैं… ईश्वर ने कहा है कि मेरे दर्शन वही पायेगा जिसकी नाक कटी हो…

गाँव का मुखिया लालच में आ गया और उसने भी नाक कटवा ली… नाक कटने पर कुछ भी नहीं हुआ तो उसने फिर पूछा… मुझे तो दर्शन हुए नहीं…. अब नकटा मुस्कराया… मुखिया जी… दर्शन हों या न हों…तुम भी यही कहना शुरू कर दो… बरना सारा गाँव तुम्हें नकटा और बेवक़ूफ़ कहेगा… मुखिया उसकी चाल में फँस चुका था…  लेकिन नाक कट चुकी थी… सो … उसने भी नाचना और यही कहना शुरू कर दिया…

इस बात को कहने वाले अब दो लोग थे…. जैसी कि प्रथा है… बहुमत सत्य के रूप में देखा जाता है… बात की विश्वसनीयता और बढ़ गयी.

धीरे धीरे दो चार लोग और भी इनके चक्कर में पड़े और नाक कटवा ली… धीरे धीरे बात की विश्वसनीयता बढती गयी और पूरा गाँव नकटा हो गया… सब बराबर… समाजवाद आ गया हो जैसे… लेकिन एक आदमी उनमे सब से होशियार था जिसे इस बात पर विश्वास नहीं होता था… वो किसी भी तरह से नाक कटवाने को तैयार नहीं हो रहा था… हर तरफ से प्रलोभन और दबाव बढ़ने लगा लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ….

आखिर नकटों की मीटिंग हुई… और अगले दिन से पूरा गाँव उसे “नक्कू" कह कर चिढ़ाने लगा…  ओय नक्कू … वो देखो नक्कू आ रहा है… उसको बिरादरी से अलग कर दिया गया… हेय दृष्टि से देखा जाने लगा…

अंत में नक्कू परेशान हो गया… परेशान हो कर… उसने भी सब कुछ जानते हुए… न चाहते हुए भी नाक कटवा कर नकटों की ज़मात में शामिल हो गया…

इधर एक अनुभव हुआ कि आज देश प्रेम, ईमानदारी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर बात किया जाए तो लोग अजीब नज़रों से देखते हैं… इसी क्रम में मुझे भी कईयों ने व्यंग्य में देशभक्त जी जैसे विशेषणों से भी नवाजा है… कई बार लगता है कि इस विषय पर बात  कर के मै कुछ गलत कर रहा हूँ…कुछ नक्कू जैसा भी  महसूस करता हूँ, कि क्यों न नाक कटवा कर नकटों में शामिल हो जाऊं …आज के दौर में ईमानदारी, देशभक्ति, और नैतिकता जैसी बात करने वाले लोगों को नक्कू की तरह देखा जाना अप्रत्याशित नहीं है … और यह कटु सत्य है कि ईमानदारी आज अल्पमत में है और लोग  नाक कटवा कर नकटों में शामिल होने को मजबूर है…. ऐसा नहीं है कि लोग व्यवस्था में सुधार नहीं चाहते… उन्हें प्रकाश की कोई किरण भी तो नहीं नज़र आ रही थी…

71021_165845033445190_6210520_nपिछले कुछ दिनों में भ्रष्टाचार के विरूद्ध अन्ना हजारे के साथ जंतर मंतर पर तीन दिन बिता कर जैसा महसूस किया वैसा तो वहाँ रह कर ही महसूस किया जा सकता है…. बाबा रामदेव जी और अन्ना तो एक जरिया हैं … प्रबुद्ध और पढ़े लिखे लोगों ने जिस तरह से भ्रष्टाचार और व्यवस्था के खिलाफ़ एक जुटता और आक्रोश दिखाया है उससे कम से कम समस्या का त्वरित हल न सही उम्मीदों को बल ज़रूर मिलेगा… कम से कम उन्हें एक दिशा और रौशनी की किरण ज़रूर मिलेगी जो नाक कटवा कर नकटों में शामिल होने को मजबूर हैं… 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी जनक्रान्ति ?

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अन्ना हजारे जी के आमरण अनशन का पहला दिन… पूरा दिन अन्ना के साथ जंतर मंतर पर बिताया… जय कुमार झा जी भी हमारे साथ रहे…. विशाल जनमानस बिना किसी राजनैतिक नेतृत्व के जिस तरह से पूरे देश में सड़कों पर उतर कर अन्ना के संघर्ष को समर्थन दिया वह अपने आप में आज़ादी के बाद सत्य के लिए सबसे बड़ी लड़ाई के रूप में देखी जा रही है.

क्या सब्र का घड़ा भर चुका है? क्या लोग उकता चुके हैं इस व्यवस्था से ? क्या इसे नयी क्रान्ति समझा जाए? पिछले कुछ दिनों से भ्रष्टाचार और अति के खिलाफ़ जनता जिस तरह आंदोलित होती दिखी है उसे क्या आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी क्रान्ति कहना अनुचित न होगा….. भ्रष्टाचार के विरूद्ध आज दिल्ली में जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के आमरण अनशन पर बैठने के साथ ही देश के लगभग ४०० शहरों में भ्रष्टाचार के विरूद्ध प्रदर्शन हुए.

P050411_12.58_[02]अन्ना हजारे सहित लाखों की संख्या में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मुहिम में शामिल लोगों द्वारा ‘जन लोकपाल बिल' को लागू कराने हेतु एक कमिटी के गठन की माँग रखी गयी गयी है जिसमे लोकपाल बिल के प्रारूप के लिए भ्रष्ट मंत्रियों और नेताओं की एकतरफा और लचर व्यवस्था से इतर एक प्रभावशाली लोकपाल बिल तैयार किया जाय. इस ड्राफ्टिंग कमिटी में पचास प्रतिशत प्रतिनिधि जनता की ओर से शामिल किये जाने को लेकर अन्ना हजारे आज से आमरण अनशन पर हैं.

देशभर से बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, स्वामी अग्निवेश, दिल्ली के आर्च बिशप विन्सेंट एम् कोंसेसाओ, महमूद मदनी, किरण बेदी, जे.एम लिंगदोह, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, अरविन्द केजरीवाल, मुफ्ती समूम काशमी, मल्लिका साराभाई, अरुण भाटिया, सुनीता गोदरा, आल इण्डिया बैंक कर्मचारी फेडरेशन, पैन-आइआईटी अल्युमनी एसोसियेशन, कामन काज़, जैसे गण्यमान व्यक्तियों और संस्थाओं ने जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अलख जगाई उसे देखते हुए आभास यही होता है कि घड़ा भर चुका है… सहनशीलता की हद हो गयी है

P050411_14.40इस आन्दोलन की विशेष बात यही है कि यह कोई राजनैतिक संगठन अथवा पार्टी द्वारा संचालित नहीं है बल्कि जनता के सहयोग से सर्व विदित कर्मठ और ईमानदार गण्यमान व्यक्तियों द्वारा आंदोलित किया जा रहा है. इस आंदोलन से लगातार लोग सक्रिय रूप से जुड़ रहे हैं. अगर सरकार इसी तरह जानबूझ कर सोने का नाटक करती रही तो वो दिन दूर नहीं जब सरकार के नीचे से कुर्सी नदारद होगी.

आह्वान है हर उस नागरिक से, उस संस्था से जिसे प्यार है अपने बच्चों, से , समाज से, परिवार से, चिंता है भविष्य की, कि India against Corruption की इस मुहिम से सक्रियता से जुड़ें और आज़ादी के बाद होने वाली सबसे बड़ी जनक्रान्ति के सहभागी बनें. हाल ही में मिश्र की क्रान्ति ने साबित किया है कि जनता ने हर जोर ज़ुल्म से लड़ने का मन बना लिया है और पूरे विश्व में एक नयी हवा बह चली है…. जहां जो जैसे सक्षम है वह अपनी तरह से इस संघर्ष को अपना समर्थन दें.

इस मुहिम से जुड़ने के लिए आपको केवल नीचे लिखे नंबर पर एक मिसकाल करनी है…

इस नंबर पर मिस कॉल करें -02261550789

http://indiaagainstcorruption.org/citycontacts.php

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

फसील सर की सुनेगा कि हुक्मरानों की… पद्म सिंह

इधर तमाम व्यस्तताओं के कारण कुछ लिखने का समय निकालना और एकाग्र होना दुष्कर रहा है…. ब्लॉग पर सक्रियता कई बार कम हो जाती है तो भीतर से बेचैनी सी होती है… आप सब से जुड़ने का लोभ जबरन ब्लॉग पर खींच लाता है. इस भीड़-मना दुनिया में   सहृदय  लोगों की स्मृति में बना रहूँ यही अभिलाषा है…

मै ही जाता हूँ गली उनकी दीवानों की तरह

वरना मालूम है मेरे जैसे हज़ारों हैं वहाँ

सीखने के दौर में एक नयी गज़ल आपकी नज़र करता हूँ….

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आज कहता है वही शख्स भूल जाने को

मैंने जिसके लिए भुला दिया ज़माने को

दिल पे खाता है मगर फिर से दिल लगाता है

दिल्लगी मानता है दिल से दिल लगाने को

किसी दरिया को समंदर का पता क्या मालूम

इक जुनूं राह दिखाए किसी दीवाने को

हो न सैयाद दर्द-मंद मेरी जानिब से

जी नहीं करता के तोडूँ मै कैदखाने को

फसील सर की सुनेगा कि हुक्मरानों की

फ़र्ज़ मजबूर है हैवानियत दिखाने को

बड़ी बुलंदियों पे ताजदार यूँ पहुँचे

अवाम हो गयी मोहताज़ दाने दाने को

 

सैयाद =शिकारी

फसील= फाँसी देने का यंत्र

(चित्र  नीहारिका बिटिया द्वारा स्केच किया गया है)

………पद्म सिंह  ०५-अप्रैल-२०११

शनिवार, 19 मार्च 2011

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

जीवन अकथ कहानी

बिधना बड़ी सयानी रे
जीवन अकथ कहानी रे

तृषा भटकती पर्वत पर्वत
समुंद समाया पानी रे

दिन निकला दोपहर चढी
फिर आयी शाम सुहानी रे
चौखट पर बैठा मैदेखूं
दुनिया आनी जानी रे

रूप नगर की गलियां छाने
यौवन की नादानी रे
अपना अंतस कभी न झांके
मरुथल ढूंढें पानी रे

जो डूबा वो पार हुआ
डूबा जो रहा किनारे पे
प्रीत प्यार की दुनिया की
ये कैसी अजब कहानी रे

मै सुख चाहूँ तुमसे प्रीतम
तुम सुख मुझसे
दोनों रीते दोनों प्यासे
आशा बड़ी दीवानी रे



तुम बदले संबोधन बदले
बदले रूप जवानी रे
मन में लेकिन प्यास वाही
नयनों में निर्झर पानी रे


कविता अर्चना चावजी जी की मधुर आवाज़ मे -

गुरुवार, 10 मार्च 2011

पान और ईमान... दोनों फेरते रहिए

एक प्रसिद्ध कहानी है ...

एक साधु नदी मे स्नान कर रहा था, उसने देखा एक बिच्छू पानी मे डूब रहा था और जीवन के लिए संघर्ष कर रहा था। साधु ने उसे अपनी हथेली पर उठा कर बाहर निकालना चाहा...लेकिन बिच्छू ने साधु के हाथ मे डंक मारा, जिससे साधु का हाथ हिल गया और बिच्छू फिर पानी मे गिर गया... साधु बार बार उसे बचाने का प्रयत्न करता रहा और जैसे ही साधु हथेली पर बिच्छू को उठाता बिच्छू डंक मारता...लेकिन अंततः साधु ने बिच्छू को बचा लिया.... घाट पर खड़े लोग इस घटना को देख रहे थे... किसी ने पूछा... बिच्छू आपको बार बार डंक मार रहा था फिर भी आप उसे बचाने के लिए तत्पर थे... ऐसा क्यों...

साधु मुस्कराया और बोला... बिच्छू अपना धर्म निभा रहा था... और मै अपना... वो अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो एक साधु अपना स्वभाव क्यों छोड़े... फर्क इतना है कि उसे नहीं पता कि उसे क्या करना चाहिए... जब कि मुझे पता है मुझे क्या करना चाहिए...

images (1)दूसरी प्रसिद्ध कहानी है... दो साधु जंगल मे एकांतवास कर रहे थे ... उन्होंने देखा कि कुछ शिकारी एक साही(एक जानवर) का पीछा कर रहे थे... साही ने आत्म रक्षार्थ अपने काँटे फुला रखे थे जिससे शिकारियों के मारने का कोई असर उसपर नहीं हो रहा था... साधु दूर से यह तमाशा देख रहे थे... साथी साधु ने दूसरे से कहा... ये साही तो मर नहीं रहा है... शिकारी कितनी देर से परेशान हैं...इन्हें कोई उपाय बताइये... इस पर साधु बोला..... "साही मरे मूड (सिर) के मारे, लेकिन हम संतों को क्या पड़ी".... यह बात इतने ज़ोर से बोली गयी थी, कि बात शिकारियों तक के कानों मे पड़ जाये... शिकारियों ने झट उसपर अमल किया और सिर पर चोट करते ही साही मर गया....

किसी का चरित्र उसके व्यवहार पर कहीं न कहीं छाप अवश्य छोडता है। किसी परिस्थिति विशेष मे कोई कैसा व्यवहार करता है, किसी अवसर विशेष पर किसी की क्या प्रतिक्रिया होती है, यही उसके चरित्र की वास्तविक तस्वीर होती है। इसको जाँचने का एक यंत्र है ज़मीर... किसी का ज़मीर कब जागता है और कब सोता रह जाता है यही उसके चरित्र की मूल पहचान होती है। किसी की मूल वृत्ति उसके व्यवहार को कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य करती है।

परोपदेशकुशलाः दृश्यन्ते बहवो जनाः ।
स्वभावमतिवर्तन्तः सहस्रेषु अपि दुर्लभाः ॥

दूसरों को उपदेश करने में अनेक लोग कुशल होते हैं, पर उसके मुताबिक व्यवहार करनेवाले हज़ारों में एकाध भी दुर्लभ होता है

दूसरों को अच्छी अच्छी बातें बताना... अच्छी सलाहें देने का कार्य सब करते हैं ... लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो लाभ का अवसर मिलते ही थोड़ी देर के लिए अपने ज़मीर को थपकी दे कर(या अफीम पिला कर) सुला देते हैं... और ताज्जुब तो यह कि कई लोग इस घटना को अनजाने(बनकर) ही करते हैं... अक्सर यह बेटे का दहेज लेने के अवसर पर स्पष्ट दिखाई देता है....

पान और ईमान को ठीक रखने के लिए फेरते रहना जरूरी होता है... अपने ईमान, अपने धर्म, अपने चरित्र की परीक्षा अवसर पड़ने पर जरूर की जानी चाहिए....

.......... पद्म सिंह padm singh

रविवार, 6 मार्च 2011

गज़ल

13-myfavoritegame

एक अरसा हो गया है,  बेधड़क  सोता नहीं

दिल  भरा बैठा हुआ है टूट कर रोता नहीं 

किसे कहते हाले दिल किसको सुनाते दास्ताँ

कफ़स का पहलू कोई दीवार सा होता नहीं

दूर हो कर भी मरासिम इस तरह ज़िंदा रहे

मै इधर जागूँ अगर तो वो उधर सोता नहीं

इश्क हो तो खुद-ब-खुद  हस्सास लगती है फिजाँ

कोई   दरिया,  पेड़,  बादल   चाँदनी बोता नहीं

तुम हमें चाहो न चाहो हम तुम्हारे हैं सदा 

ये कोई सौदा नहीं है कोई समझौता नहीं

 

...... पद्म सिंह =Padm singh 9716973262

शनिवार, 5 मार्च 2011

एक था राम सरन

P291110_17.00

सुबह देखने वालों की भीड़ की आँखों मे सहानुभूति, तिरस्कार, और जुगुप्सा जैसे कई भाव मिलजुल कर एक साथ थे... वो घण्टा लिए लेटा था ...

छैल बिहारी पाँड़े रियासत के दौर मे खूंखार दारोगा हुआ करते थे ...  कहते हैं उनके जैसा लठैत इलाके मे नहीं था। सिर पर गमछा लपेट कर जिस समय लाठी ले कर दौड़ पड़ते पचासों की भीड़ काई की तरह छितरा जाती...चारों तरफ से चलते ईंटे-अद्धे अपनी लाठी पर रोक लेना हुनर मे शामिल था... इलाके मे छैल बिहारी से भिड़ने की हिम्मत किसी मे नहीं थी... अपनी लाठी के दम पर किसी का खेत कटवा लेना... जमीन हड़प लेना... और फर्जी मुकदमे मे फंसा कर बर्बाद कर देना बाएँ हाथ का खेल था...

कहते हैं एक बार पूरे गाँव को फ़ौजदारी मे फंसा कर साल भर के लिए जेल भेज दिया था। बेईमानी, दबंगई और अपनी लट्ठ के बल पर बहुत कुछ बनाया कमाया... समय हर मर्ज की दवा होती है। एक समय बीमारी ने ऐसा जकड़ा कि फिर उठना नहीं हुआ... खेत, खलिहान, और ऊल जलूल कमाए हुए रूपये पैसे घर द्वार सब छोड़ कर सिधार गए।

इन्हीं छैल बिहारी पाँड़े के दो लड़के अवधेश और राम सरन उस समय चढ़ती उम्र के जवान थे... उन्हें भी उद्दंडता अपने पिता से विरासत मे मिली थी... आए दिन गाँव वालों से, अड़ोसी पड़ोसी  से झगड़े होते थे, अब परिवार और पट्टीदारों से  से झगड़े होने लगे... जरा जरा सी बात पर  सुबह शाम फरसे, लाठियां और बल्लम(भाले) निकलने लगी।

राम सरन का विवाह नहीं हुआ... छोटे भाई के बच्चों को अपने साथ ले कर घूमता फिरता... दोनों के पास खेती बारी के अलावा कमाई का कोई साधन नहीं था ... लेकिन शानो शौकत से रहने की आदत ने धीरे धीरे इस हद तक ला दिया कि  खेत बेच कर खर्च चलाने लगे... लेकिन दिखावा वही रहा... राम सरन ने पुलिस की दलाली शुरू कर दी... दो पक्षों मे लड़ाई करवाना और फिर FIR और समझौते के नाम पर दोनों से धन उगाही करना उसका पेशा बन गया... कोई उसके कहे के अनुसार न चलता तो उसको अजीबोगरीब सज़ा देता ..... पहले तो उसके घर चोरी करवा देता... या फिर कोई नुकसान करवा देता... खड़ी फसल मे बेर की कंटीली  झाड़ियाँ लुंगी से बाँध कर रात भर घसीटता और खड़ी फसल को चौपट कर देता... किसी के खेत की आलू रातों-रात खोद लेना... आम की बाग से बोरियों आम तोड़ लेना उसका रोज़ का काम बन गया...

खानाबदोश की तरह घूमते रहने वाले राम सरन का चेहरा और पहनावा भी उसकी सोच और आदतों की तरह विद्रूप होता गया .... कुर्ता और लुंगी पहन कर शकुनि जैसी चाल के साथ एक पसली के राम सरन की  एक आँख छोटी और गड्ढे के अंदर कोटर मे  घुस गयी लगती  थी,.... एक आँख की भवें ऊंची नीची होती तो राम सरन को और भी रहस्यमय लगता था ...

जीवट इतना,कि रात रात भर वेताल की तरह गाँव गाँव घूमता... सर्दियों की कई कई रातें   किसी के गन्ने के खेत के बीचों बीच जगह बना कर गन्ना चूसते हुए बिता देता... खेतों मे खड़ी फसल की बालियाँ रात मे लुंगी मे झाड़ लेना मामूली बात थी...

गावों मे आज भी ब्राह्मण के घर पैदा हो जाना भी उसकी योग्यता का प्रमाण-पत्र होता है।.... चाल चलन कैसा भी हो लोग पैलगी करना नहीं भूलते... और फिर एक कहावत है कि "नंगों से खुदा भी हारा है" इस कारण लोग डर से राम सरन से प्रत्यक्ष रूप से खुल कर कुछ कहते हुए डरते थे...

अपनी इन्हीं हरकतों से धीरे धीरे ज़्यादातर खेत बिक गए या गिरवी चढ़ गए.... चोरी चकारी करने और दूसरों को परेशान करने की आदत नहीं गयी... पता नहीं किस सोच के कारण अपने बचे खुचे खेतों के कागजात के बदले नया ट्रैक्टर भी खरीदा गया लेकिन किश्तें न जाने के कारण खेत और ट्रैक्टर दोनों चले गए...

इलाके के लोग भी तंग आ चुके थे... आस पास के कई गावों मे उसका आतंक पसरा हुआ था...बिना कारण भी किसी का नुकसान कर देना उसका शगल था ... कहते हैं सबको अपने किए की सज़ा यहीं मिलती है ...  मई जून  की कोई रात थी वो ... यादवों के गाँव मे पीपल के पेड़ पर बीस किलो का पीतल का घंटा लटका हुआ था... लगभग एक से डेढ़ के बीच का समय रहा होगा... लोग एक नींद पूरी कर चुके होंगे... एक साया पीपल के थान से होकर  अंधेरे की आड़ लेते हुए पेड़ पर चढ़ा... पीतल का घंटा भारी होने के बावजूद उसे खोला और पेड़ से नीचे उतार लिया ...

... लुंगी मे बांधते हुए अचानक घण्टा टन्न की आवाज़ के साथ बज गया... किसी को शक हो गया और एक आवाज़ पर गाँव मे जाग हो गयी और लोगों ने टार्च और लाठीयों के साथ इलाका घेरना शुरू कर दिया... इसके बावजूद भी चोरी करने वाले ने घण्टा नहीं छोड़ा और दोनों पैर के बीच मे घण्टा दबाकर एक चौड़ी नाली मे लेट गया .... मगर हर अति का एक अंत होता है... उस दिन काल ने अपना जाल बिछा रखा था....

सुबह पता चला राम सरन की लाश पैरों मे घण्टा दबाये नाली मे लेटी थी...

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

संत्रास

कब तक ये संत्रास रहेगा
कब तक ये वातास बहेगा

धूप न मिल पाई बिरवे को
निर्मम कारा के गह्वर में
प्यास न मिट पाई मरुथल की
धूल धुंध फैली अन्तर में
सरसिज की आहों में कब
पतझड़ का आभास रहेगा

आंखों को चुभने लगता है
पलकों का सुकुमार बिछौना
मन की तृषा भटकती ऐसे
जैसे आकुल हो मृग छौना
आख़िर कब तक इन राहों को
मंजिल का विश्वास रहेगा

विधि के हांथों जीवन की भी
डोर छोर पुरजोर बंधी है
जहाँ राह ले जाए रही के
सपनों की डोर बंधी है
रजा राम संग सीता को
मिलता ही वनवास रहेगा
कबतक ये ...........

छोटा सा बडप्पन

जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
‎प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश  शहर का  रेलवे स्टेशन..February ‎24, ‎2006 दोपहर के बाद का समय था...हलकी धूप
थी. गुलाबी ठण्ड में थोड़ी धूप अच्छी भी लगती है और ज्यादा धूम गरम भी लगती है ... स्टेशन पर बैठा इंतज़ार कर रहा था और ट्रेन लगभग एक घंटे बाद आने वाली थी ..... बेंच पर बैठे बैठे जाने क्या सोच रहा था ...
चाय ..... चाए .....की आवाजें या फेरी वालों की आवाजें रह रह कर मेरी तन्द्रा तोड़ देतीं ........वहीँ स्टेशन पर पड़े दानों के पीछे चार पांच कौए आपस में झगड़ने का उपक्रम कर रहे थे ...जिनके खेल को मै बड़ी तन्मयता से बड़ी देर से देख रहा था ... इसी बीच मुझे किसी के गाने की आवाज़ ने चौकाया ..... कोई गा रहा था दूर प्लेट फार्म पर ... आवाज़ तो अच्छी नहीं थी पर जो कुछ वो गा रहा था उसके शब्द मुझे उस तक खीच ले गए ...
कद लगभग ढाई से तीन फुट के बीच ही था उसका ... पर उम्र लगभग ३० के आस पास रही होगी
उत्सुकता वश बहुत से लोग उसके करीब आ गए और गाना सुनते रहे ,....
किसी ने एक दो रूपया दिया भी उसे .... पर उसका गाने का ढंग और उसके गीतों  का चयन मुझे छू  रहा था 
कुछ देर बाद जब थोड़ी फुर्सत सी हुई तो मैंने उत्सुकता वश उसे अपने पास बुलाया और बात करने लगा..... 
बताया कि मेरा घर यही प्रतापगढ़ के पास चिलबिला स्टेशन के पास ही है
माँ बाप का इकलौता हूँ ....बाबा रहे नहीं ..... अम्मा हैं
अब मेरी हालत तो देख ही रहे हो बाबू
और कोई काम तो कर नहीं सकता सिवाय इस के,.......
मुझे गाने का बहुत शौक था तो गाने लगा हूँ बचपन से ही
..........मैंने कहा आज कल तो विकलांगों के लिए सरकार बहुत कुछ कर रही है
.......... सरकार क्या करेगी ज्यादा से ज्यादा एक साइकिल देगी या फिर रेल का किराया कम कर देगी और कुछ कर नहीं सकता पढ़ा लिखा भी नहीं हूँ
.................................................
एक बार सर्कस वाले आये थे कहने लगे चलो हमारे साथ हम तुमको पैसे भी देंगे और देश बिदेस घूमना हमारे साथ
....... फिर?
पर साहब मेरी माँ का क्या होगा यहाँ पर ... बाबा(पिता) रहे नहीं.......
अम्मा बीमार रहती हैं ..... दमे की मरीज़ हैं तो .......
अब उनकी देख रेख मै नहीं करूँगा तो कौन करेगा .....कहती हैं तू चला जा सर्कस में ..... पर बाबू जी ....... अम्मा को छोड़ कर जाने का दिल नहीं करता ....उसकी बातों में अम्मा के लिए प्रढ़ अपनापा और संवेदना झलक रही थी
बहुत मयाती हैं हमका अम्मा
और फिर औलाद किस दिन के लिए होती हैं........
जौ हमहीं चले जायेंगे छोड़ कर ....... तो और कौन साथ देगा ?
आज देर होई गई आवे मा....... अम्मा की तबियत ज्यादा खराब होई जात है  सर्दी मा..!!
आज तो हमरो तबियत कुछ ढीली है .......मगर का करी .... दवाई ले जाय का है ...... यही बरे आवे का पड़ा( इसी लिए आना पडा)
.....दिन भर में कितना ?
अरे दिन भर में कितना का ....... कभी 20-30 रुपिया तो कभी भीड़ भई तो 70-80 रुपिया भी होई जात है दिन भर मा .........
पर उसके स्वभाव में लाचारी नहीं दिखी मुझे ....... एक चमक थी आत्म विश्वास की ......
मैंने ज्यादा पूछ ताछ करना ठीक नहीं समझा ......
मैंने कहा मेरे लिए एक दो गाने गाओगे?
बोला हाँ साहब क्यों नहीं
फिर अपने सोनी के मोबाइल फोन से उसका गाना रिकार्ड किया ......
जो कुछ हो सका दिया भी .....
पर अपनी माँ के लिए उस के भाव और बातें आज भी याद आती हैं
जब भी उधर से गुजरता हूँ , नज़रें ढूंढती रह जाती हैं उसे
लेकिन फिर कभी नहीं दिखा मुझे वहां पर
कभी कभी लगता है हम पढ़ लिख कर ...... सर्विस, व्यापार के चक्कर में अपनों से और अपने घर से इतनी दूर हो गए हैं ...
पैसे, उपहार ... चाहे जो भेज दें पर अपने बड़ों के पैर छूने की अहक इस "बनावटी बडप्पन" में कहीं घुट जाती है...

मै ये भी आपको बताना चाहूँगा कि .... मैंने उस से ये भी कहा था कि मै तुम्हरी बात अगर हो सका तो कहीं आगे ले जाऊँगा और तुम्हरी गाने की कला का कोई कद्र दान ढूँढूँगा ...... पर मेरे पास कोई ऐसा माध्यम नहीं था ...इस ब्लॉग के माध्यम से आज फिर सक्षम लोगों से गुज़ारिश करना चाहूँगा कि यदि आप कुछ कर सकें तो मै दोबारा उसे ढूँढने की कोशिश करूँगा ...
उसने जो गाया मै उस को लिख भी देता हूँ
हो सकता है कोई इस पोडकास्ट को सुन न पाए --

१- पढ़ने को मेरा उसने खत पढ़ तो लिया होगा
हर लफ्ज़ मगर कांटा बन बन के चुभा होगा
कसिद् ने खुशामद से क्या क्या न कहा होगा
शायद किसी भंवरे ने मुह चूम लिया होगा
शबनम के टपकने से क्या कोई कली खिलती
बेटा किसी बेवा का जब दूल्हा बना होगा
शादी में उस माँ का आंसू न रुका होगा
धनवान कोई होता तो धूम मची होती
निर्धन का जनाज़ा भी चुपके से उठा होगा
----------------------------------------------
२-
सर झुकते नहीं देखा किसी तूफ़ान के आगे
जो प्रेमी प्रेम करते हैं श्री भगवान के आगे
लगी बाजार माया की इसी का नाम है दुनिया
यहाँ ईमान बिक जाता फकत एक पान के खाते
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पाती

२-

पाती के संग बहते आंसू
पहुंचे तेरे पाँव में
परदेसी परदेस छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में

दिल में लावा उबल रहा है
प्यासे रेगिस्तान है
कुछ बिरहा की याद सताए
कुछ दिल के अरमान है
मुझे झुलसता छोड़ बेदर्दी
जा बैठे तुम छाओं में
परदेसी परदेस छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में

छोड़ा क्यों साथ मेरा माही
दुःख के सागर की बाँहों में
तुम उडे प्रीती का पिंजरा ले
मे बंधी पड़ी थी आहों में
टूट गया पतवार नाव का
छेद्द हो गए नाव में
परदेसी परदेस छोड़ कर.....

कुछ घर से कुछ बाजारों से
कुछ गलियों से चौबारों से
भेड़िये झांकते हैं अक्सर
इज्ज़त के ठेके दारों से
कुछ से बच कर बच पाई हूँ
कुछ छिपे खड़े है दाँव में
परदेसी परदेश छोड़ कर
वापस आ जा गाँव में

पूजा के फूल

पूजा के फूलों की
ये ही परिणति है क्या
चढ़ते है डाली से टूट
ईश चरणों में
मात्र अहम् पोषण को
मर्दन को शोषण को
अपनी ही जड़ से हो दूर
चूर हो किसी की अर्थी पर
चढ़ते भी तनिक न लजाते है
बनते है प्रीती का सिंगर
वार तन मन
मधु सेज भी सजाते है
गाते है झूम झूम
जब तक हों डाली पर
गाते इतराते है
उपवन पर माली पर
विधना के हाथों
क्यों तोड़ दिए जाते है
छोड़ दिए जाते है
पथरीली राहों पर
कैसे ये सृष्टि भला
दारुण दुःख ढोती है
धिक् है प्रलय कंदराओं में
सोती है
००००००००००००००००००००००००००

प्रकाश पर्व ..... यादों के झरोखों से

असत्य पर सत्य की विजय ... हर्षोल्लास और प्रकाश के पर्व दीपावली का
पुनरागमन हुआ है ...मौसम सुहाना हो चला है… दशहरे से प्रारम्भ हो कर
दीपावली तक गुलाबी ठण्ड का मौसम रूमानी हो जाता है …. सुबह की सिहलाती
ठंडी हवा में हरे हरे पत्तों से लदी टहनियाँ उमंग के गीत गाती हैं …
कनेर की फुनगियों पर घंटियाँ लटकने लगी हैं मानो धन धान्य की देवी
लक्ष्मी की पूजा को आतुर हैं …धान की कटाई का मौसम भी आ गया है ... धान
की कटाई प्रारंभ होते ही गावों में जैसे कोई उमंग अंगड़ाई लेने लगती है…
कस्बों में मेले भरने लगते हैं ... जिनमे पिपिहरी बजाते तेल काजल किये
हुए गवईं बच्चे... ठेले पर ताज़ी गुड़ की जलेबी खरीदती मेहरारुएँ और ..बड़े
वाले गोलचक्कर झूले पर चीखती खिलखिलाती अल्हड़ छोकरियां..... कुछ बड़े
मेलों का रंग थोड़ा अलग होता है ... नौटंकी थियेटर की टिकट खिड़कियों पर
फ़िल्मी गानों का कर्कश शोर…और अंदर स्टेज पर चल रहे थिरकते उत्तेजक
नृत्य... जत्थे के जत्थे अपनी तरफ आकर्षित करते हैं ... जीवन के तमाम
झंझावातों में फंसा मन जाने क्यों इस मौसम के साथ बचपन की उमंग की बराबरी
नहीं कर पाटा लेकिन बचपन के अनुभव कभी भूले भी नहीं जाते .. … बचपन की
यादें… कहाँ तक याद करें …
कुछ सालों पहले गावों में ठण्ड जल्दी पड़ने लगती थी(शायद आज भी) … दशहरे
तक गर्म कपड़े निकाल लिए जाते थे … गरम कपड़े के बक्से निकाल कर धूप में
रखे जाते तो बड़े बड़े बक्सों में (छोटे छोटे हम) घुस कर अपने आप को उसमे
बंद कर लेते और देर तक खेलते रहते … हर साल बहुत से कपड़े एक साल में ही
छोटे हो जाते थे जिसे या तो कोई छोटा अपने लिए छांट लेता या फिर दुबारा
सहेज कर रख दिए जाते. शेष अनावश्यक कपड़े किसी जरूरतमंद को बाँट दिए जाते.

दशहरे के पहले से ही मौसम उमंग से भरने लगता ... गाँव के खेतिहर और लगभग
साल भर अपनी खेती बाड़ी में जुते रहने वाले नीरस से दिखने वाले गंवई लोगों
में से जाने कहाँ से रामलीला के कलाकार पैदा होते थे… हारमोनियम की करुण
तान पर, भाई लखन के लिए जब राम विलाप करते … तो दर्शक दीर्घा में लोगों
की आँखें छलछला जातीं .. हलवाई की दूकान करने वाले लखन नाई जब इन्द्रजीत
की भूमिका में उतरते तो रावण की लंका सजीव हो उठती… रामलीला की चौपाइयाँ
और हारमोनियम की सुर तरंगें ढोलक की थाप के साथ मिल कर एक अद्भुद सम्मोहन
पैदा करतीं…इस मुफ्त के मनोरंजन में तथाकथित संभ्रांत जन कम ही रहते …
लेकिन मजदूरों के बच्चे और औरतें एक फतुही लपेटे ठण्ड में गुरगुराते हुए
रात भर राम लीला देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे ….

दशहरा से दीपावली तक मौसम धीरे धीरे ठण्ड और धुंध के आगोश में समाया करता
… सुबह घास की नोकों पर और टहनियों पर लगे मकड़ी जाले पर ओस की बूँदें
गुच्छा दर गुच्छा ऐसे लगती हैं जैसे किसी ने मोतियों की लड़ी पिरो रखी
हो…खेत की मेड़ों पर सुबह सुबह पैर ओस से तर हो जाते .... सुबह जल्दी उठ
कर खेतों की तरफ टहलने जाना, अलाव के सामने बैठ कर इधर उधर की चर्चा
करना, और ढेर सारी फुरसत ....

धान की कटान से खेत और खलिहान में धान के बोझ के बोझ फैले रहते… सुबह
मुंहअँधेरे से ही मजदूर धान सटकने(निकालने) लग जाते…बड़ी देर तक रजाई में
पड़े पड़े सटाक... सटाक... की धुन सुनते रहते ... रास (राशि) तैयार होने पर
धान को बांटते समय मुझे टोकरीयों की गिनती करने के लिए बुलाया जाता… हो
राम…ये एक… ये दो… ये तीन… हर बारह टोकरी पर एक टोकरी धान मजदूरी दी जाती
थी… और सब से पहली टोकरी पुरोहित/ब्राह्मण को दान में देने के लिए अलग से
निकाली जाती. पूरा ढेर बंट जाने पर जमीन पर एक मोटी परत अनाज मजदूरों के
लिए अलग से छोड़ी जाती थी…दस पन्द्रह साल पहले तक नाई, कुम्हार, धोबी और
कहार आदि पैसे नहीं लेते थे … फसल होने पर इनके लिए अनाज की ही व्यवस्था
थी … इन्हीं के बदले पूरे साल अपनी सेवाएं देते थे… खलिहान की रौनक पूरे
दिन बनी रहती … ये सिलसिला दीपावली के बाद भी चलता रहता…

दीपावली आने से पहले पूरे घर का कायाकल्प किया जाता… हफ़्तों सफाई, पुताई
और कच्ची फर्शों पर लिपाई से घर दमकने लगता… गमकने लगता … दीपावली के दिन
सुबह कुम्हार बड़े से टोकरे में ढेर सारे दिए, हमारे लिए मिट्टी की
घंटियाँ और छोटी छोटी मिट्टी की चक्कियाँ और घूरे पर जलाने के लिए कच्चे
दिए भी लाते…(वो कहते हैं न… कि कभी न कभी घूरे के भी दिन लौटते हैं) शाम
होते होते दीयों को पानी में भिगा दिया जाता जिससे दिए तेल नहीं सोखते…
सरसों और अलसी के ढेर सारे तेल से सारे दिए भरे जाते… बातियाँ लगाईं
जातीं और देर तक सब मिल कर छत पर दिए सजाते…नए कपड़े पहनते.. खील बताशे और
चीनी के खिलौनों के साथ मिठाई बाँटी जाती …. रात में देर तक पटाखे चलाते…
थोड़ी देर पढ़ाई करते( घर वाले कहते…. आज पढ़ोगे तो पूरे साल पढ़ाई अच्छी
होगी) कच्चे दिए पर बाती में अजवायन भर कर उतारे गए काजल सबको लगाए जाते
फिर सब सो जाते… सुना था कि दीपावली के दिन जिसका जो भी काम होता है उसे
जगाता है….मन में हर बार आता था ... क्या चोर, भ्रष्टाचारी और अनैतिक
लोगों की मंशा भी फलित होती है दीपावलि को ?

समय के साथ साथ बहुत कुछ बदला है ... बदल रहा है ... दीयों की जगह चाइनीज़
बिजली की लड़ियों ने ले ली है ... शुभकामना सन्देश एस एम् एस से कितनी
तीव्रता से संप्रेषित हो रहे हैं.... और घर के मावे की मिठाइयों की जगह
नकली मावे और नकली दूध की मिठाइयों ने ले ली है ,... आस्था, परंपरा और
रिश्तों में बाजारवाद कहीं न कहीं चुपके से घर करता जा रहा है ....
परिवर्तन समय का नियम है ... परिवर्तन होते रेहेंगे... ईश्वर करे स्नेह,
प्रेम, संवेदनाओं और रिश्तों की ज़रूरत बनी बनी रहे ... किसी बहाने ही सही
...

प्रकाश पर्व दीपावलि की शुभकामनाएं

मेरे द्वार पर जलते हुए दिए
तू बरसों बरस जिए ...
आंधियां सहना
मगर द्वार पर ही रहना
क्योकि यही है
मेरी अभिलाषा
मेरी आकांक्षा
मेरी चाह

कि सदा आलोकित करना
द्वार से गुज़रती हुई राह
क्योकि जब कोई राही
अपनी राह पायेगा
प्रकाश से दमकता कोई चेहरा
मुस्कुराएगा
तो उजाला मेरी बखार तक न सही
अंतर्मन तक जरूर आएगा
अंतर्मन तक जरूर आएगा

.......आपका पद्म

Posted via email from हरफनमौला

बेटा!!… मेडल जुगाड़ से जीते जाते हैं ….समझे?

चौथी क्लास की कोई दोपहर रही होगी … लेकिन जेहन में अभी भी उतनी उजली है…
रघुनाथ मुंशी जी ने पूरे क्लास को संबोधित किया … गाना वाना आवत है कौनो
को ? सरकारी प्राइमरी और कान्वेंट की नर्सरी में फर्क के नाम पर बहुत कुछ
होता है… कहना ही क्या … फ़िलहाल … जाने कैसे और क्यों मुझे खड़ा किया गया
और “कौनो गाना सुनाव बेटा" का आदेश मिला… उस समय अकल कम ही होती थी मेरे
पास… अपने आप को देश भक्त समझा करता था(शायद आज भी)… इसीलिए बहुत सारे
देश भक्ति के गाने याद रहा करते थे … मुंशी जी का आदेश था … महुवे के पेड़
के नीचे (जहाँ अब ग्राम सभा का खडंजा बिछ गया है वहीँ) काँपती टांगों पर
खड़े हो कर लगभग बेसुध सा अपने जीवन का पहला सार्वजनिक गीत गाया था …
जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती हैं बसेरा .. वो भारत देश है मेरा …
वो भारत देश है मेरा …

बाद में पता चला मेरा चयन रेडक्रास की स्कूल टीम के लिए किया गया था… मै
अपनी क्लास में सबसे छोटा दीखता था( शायद था भी) क्योकि उस समय के जी और
नर्सरी नहीं होती थी … “पहली”, फिर “बड़ी” और फिर सीधे दुसरे क्लास में …
मैंने दूसरा क्लास नहीं पढ़ा .. सीधे पहले से तीसरे में.. इस लिए सब से
छोटा था. टीम की तैयारियां पूरे जोरों पर होतीं… ग्रुप में आठ लड़के …कुछ
तो ढपोंगे थे … रेडक्रोंस के लिए तैयार नाटक के डायलोग याद करते,
डिप्थीरिया, काली खाँसी और टिटनेस का टीका “DPT” सीखते… बैसिलस कालवेटिव
ज्युरिल(BCG) के टीके याद करते … चेचक के समय क्या क्या सावधानियां होनी
चाहिए… इमरजेंसी में मुंह से सांस देना, फिर एक दो तीन .. तीन बार सीने
पर दबाव देना फिर एक…दो.. तीन … सांस देना … मतलब कि बहुत कुछ… जनपद
स्तर, मंडल स्तर और राज्य स्तर या नेशनल… जहाँ भी गयी टीम प्रथम स्थान ही
लेकर आई …

एक थे राम नारायण पंडिज्जी ( पंडिज्जी माने गुरु जी)….. जिसने लोटपोट
कोमिक्स पढ़ी हो वो डाक्टर झटका को हुबहू याद कर लें… ऐसे ही थे पंडिज्जी
… “ब्बता रहा हूँ जो है…समझे? " उनका तकिया कलाम होता … ब्बता रहा हूँ जो
है ऐसा ..समझे?? … ब्बता रहा हूँ जो है वैसा …समझे??…. वैसे तो पंडिज्जी
क्राफ्ट के मास्टर थे लेकिन काम था टीम बनाना और लड़वाना.. रेडक्रोस,
सेंटजान एम्बुलेंस,मेकेंजी, और स्काउटिंग आदि कोई भी कम्पटीशन हो … पंडित
जी हर विधा में निपुण… साम दाम दंड भेद सारे के सारे उनकी उंगलियों
पर…रघुनाथ मुंशी जी उनके सहयोगी हुआ करते…क्राफ्ट के मास्टर होने के कारण
खूबसूरत डायरियां बनाते जिनमे हम रेडक्रास के कैडेट्स द्वारा किये गए
स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यों और जागरूकता अभियानों का ब्यौरा होता…

हम पूरे मनोयोग से जीतने के लिए ही निकलते थे … हम जहाँ भी जाते पूरा लाव
लश्कर साथ चलता … मै छोटा था … मुश्किल से अपनी अटैची उठा पाता.. बेडिंग
कोई सहपाठी या पंडित जी ही उठाते … ट्रेन में, बस में, होटल में जहाँ भी
जाते खूब धमाल मचाते…. गाते हुए, हँसते हुए खूब मज़े करते … (Smile)

जो भी मेडल हम जीतते वे हमें नहीं मिलते थे बल्कि स्कूल में अनुदान के
रूप में ले लिए जाते …. अगले साल आने वाली प्रतियोगिताओं के बच्चे उन्हें
लगा कर परेड में भाग लेते थे … इस तरह सब से ज्यादा मेडल हमारी टीम के
होते थे.

ये सब यूँ लिखा मैंने …. कि पंडिज्जी को सारी कलाएं आती थीं… टीम के
बच्चों को खूब खिलाते पिलाते…खूब सिखाते भी …जिस होटल पर टोली पहुँचती
होटल वाला खुश…छह सात दिनों के लिए ढेर सारे ग्राहक मिल जाते लेकिन वो
बात अलग, कि टीम की वापसी के समय पंडिज्जी के पास तीन चार दर्जन गिलास और
कुछ इससे ज्यादा ही दर्जन चम्मचादि हुआ करते … Winking smile होता यह था
कि जिस होटल वाले ने परेशान किया,अच्छा खाना नहीं दिया या शोषण किया
उसका बदला पंडिज्जी ऐसे ही लेते थे…

अगले दिन आगरा में कम्पटीशन का फाइनल था… रेडक्रास और सेंटजान
एम्बुलेंस का… हम सब कल होने वाले वाइवा और प्ले की तैयारियों में व्यस्त
थे…देर रात पंडिज्जी लगभग बीस पच्चीस सर्टिफिकेट, जिन्हें कल विजेताओं को
वितरित किया जाना था लिए हुए कमरे में घुसे ….सभी सर्टिफिकेट्स पर तीन या
चार अधिकारिकों के हस्ताक्षर पहले से थे… सिर्फ नाम भरा जाना था … सुन्दर
सुन्दर हर्फों में सब टीम मेम्बर्स के नाम लिखे गए…प्रथम स्थान की घोषणा
भी लिखी गयी …. और कमाल देखिये … कल आने वाले दिन में हम प्रथम घोषित
किये गए और अपने हाथों से लिखे सर्टिफिकेट भी प्राप्त किये …

हमसे रहा नहीं गया तो पूछ बैठे … पंडिज्जी ! सर्टिफिकेट पर आपने कल ही
प्रथम स्थान प्राप्त किया" लिख दिया था … ये कैसे हुआ… पंडिज्जी ने पान
खाया हुआ मुंह थोड़ा ऊपर उठाया और अत्यंत रहस्यमयी मुस्कान बिखेरते हुए
बोले….

ब्बता रहा हूँ जो है……बेटा….!!! मेडल जुगाड़ से जीते जाते हैं …समझे?

(हुआ यह था कि किसी स्कूल वालों ने पंडित जी को चैलेन्ज दे दिया था.. इस
बार कम्पटीशन जीत के दिखाओ)

पिछले दिनों गाँव गया तो अचानक पंडिज्जी से मुलाक़ात हो गयी…पंडिज्जी
पणाम! …बहुत खुश हुए अपने पुराने “टोली नायक” से मिल कर … पंडिज्जी की
उमर ढल चुकी है…रिटायर हो चुके हैं … अपने पुत्र धौताली के साथस्कूल खोला
है … हाई स्कूल और इंटरमीडियेट में गारंटीड सफलता के लिए सारे जुगाड़
युक्त स्कूल… Smile

Posted via email from हरफनमौला

महत्वाकांक्षाओं के फावड़े…कुत्ते की हड्डी और… मुल्ला नसीर का जूता

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“कहाँ से शुरू करूँ”….मुझे अक्सर यह प्रश्न सताता है …. इसी सोच में शुरू  करना और भी मुश्किल होता जाता है … धीरे धीरे  बहुत सारे दिन और विचार इसी उधेड़बुन में निकल जाते हैं … कहाँ से शुरू  करूँ … ये बहाना भी हो सकता है… दरअसल प्रश्न ये होता होगा कि  क्या शुरू करूँ … कुछ भी लिख देना दुनिया की नज़र में आकर्षक हो सकता, अगर मेरे पास  एक सेलेब्रिटानी वर्तमान होता, विरासत में मिला कोई स्तरीय(ऊच्च या निम्न) अतीत होता, स्वप्निल और स्वर्णिम भविष्य के सपने होते या फिर कम से कम एक बौराया पगलाया प्रेम ही होता … सोचना, सोच को लिखना और सोच को अभिव्यक्त करना और अंततः  क्रियान्वित करना …  क्रमशः दुरूहतर होते हैं …शायद इसीलिए हर शुरुआत में ये प्रश्न बार बार खड़ा हो जाता है कि “कहाँ से शुरु करूँ”

giving-you-the-best-darwin-leonकई बार ‘लक्ष्य' , ‘उपलब्धि', और ‘महत्वाकांक्षा' जैसे शब्द खोखले लगने लगते हैं… क्योकि हर उपलब्धि अपने पीछे एक निराश सूनापन छोड़ जाती है… हर लक्ष्य की प्राप्ति पर नया लक्ष्य खड़ा मुंह चिढ़ाता दीखता है…और पीछे  एक और अतृप्त तृष्णा शेष रह जाती है… हर उपलब्धि महत्वाकांक्षा के नए प्रतिमान गढ़ लेती है… और इसी चक्रव्यूह में सारी शक्तियाँ (मानसिक शारीरिक) खप जाती है…  पूरी उम्र लक्ष्यों की खोज में  वास्तविक प्राथमिकताएं तो उपलब्धियों के पीछे यूँ दबी रह जाती है जैसे रेशमी कुर्ते के ठीक नीचे फटी बनियान… हम छोटी छोटी उपलब्धियों को ही अपना लक्ष्य मान लेते हैं और ढेर सारी प्राथमिकताएं  में भ्रूण अवस्था में ही दम तोड़ देती हैं… महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में हम अपने प्रिय, अपने सम्बन्धियों सहित स्वयं के साथ भी अनजाने ही यंत्रवत हो कर रह जाते हैं….आत्मीयता की सरिता जैसे सूख जाती है… हर रिश्ता औपचारिक और हर  कृत्य दिखावा मात्र रह जाता है. 

एक लघुकथा याद आती है… मुल्ला नसीरुद्दीन के पास एक जूता था … जूता इतना तंग कि पहनना भी मुश्किल… इस वजह से काटता भी बहुत था … लेकिन मुल्ला को जूते से बहुत प्रेम था … किसी मित्र ने पूछा यार मुल्ला नसीरुद्दीन.. तुम नया जूता क्यों नहीं ले लेते…. मुल्ला का जवाब था … यार जीवन में सारे सपने रीते पड़ गए… सारी महत्वाकांक्षाएँ अतृप्त रह गयीं …ऐसे में मेरे सुख का एकमात्र सहारा ये जूता ही है… पूरे दिन पैर में काटता है…पूरे दिन इसकी टीस मुझे परेशान करती है ..लेकिन शाम को जब मै इसे उतारता हूँ तो बेहद सुकून मिलता है … मेरे जीवन में एकमात्र यही सुख का साधन है … इसी लिए इस जूते को मै नही बदलता… मिथ्या सुख के बड़े बड़े लक्ष्यों के पीछे अपने आत्मिक सौंदर्य को निहारना जैसे भूल ही जाते हैं… इसे ऐसे भी समझें कि “सुख, आनंद का शार्टकट बाईपास है" … आश्चर्य तो यह कि अधिकतर हमें अपनी वास्तविक प्राथमिकताओं का भान भी नहीं होता…  जैसे कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता है और अपने ही मसूड़े के खून से तृप्त होने का भ्रम पालता है, ऐसे ही मनुष्य महत्वाकांक्षाओं के फावड़े से अपनी आत्मा की कब्र खोदता रहता है और अंत में जब तक वस्तुस्थिति का भान होता है… कोई अवसर शेष नहीं होता…  ये बात तो अंत में पता चलती है कि “जीवन में रीसेट का बटन नहीं होता"

“दुनिया जीतने की चाह में मनुष्य अपने आप को हार जाता है"

अंत में कबीरदास का एक निर्गुण जो शायद सारे भ्रम तोड़ कर वास्तविकता के धरातल पर ला पटकता है….

भंवरवा के तोहरा संग जाई,
आवे के बेरियां सभे केहू जाने,
दु्अरा पे बाजे बधाई,
जाइ की बेरियां, केहू ना जाने,
हंस अकेले उड़ जाई....
भंवरवा के तोहरा संग जाई,

देहरी पकड़ के मेहरी रोए,
बांह पकड़ के भाई,
बीच अंगनवां माई रोए,
बबुआ के होवे बिदाई,
भंवरवा के तोहरा संग जाई,

कहत कबीर सुनो भाई साधो,
सतगुरु सरन में जाई,
जो यह पढ़ के अरथ बैठइहें,
जगत पार होई जाई,
भंवरवा के तोहरा संग जाई।

 

……….. आपका पद्म सिंह

(चित्र-गूगल से साभार)

आज़ाद पुलिस संघर्ष गाथा-४ (मुंबई में पुलिस का चालान काटेगी आज़ाद पुलिस)

आशा है मेरी पिछली पोस्टों आज़ाद पुलिस संघर्ष गाथा-१, आज़ाद पुलिस संघर्ष गाथा- २ और आज़ाद पुलिस (संघर्ष गाथा –३) के माध्यम से आज़ाद पुलिस से आप पर्याप्त परिचित होंगे …नहीं हैं तो कृपया उक्त पोस्टें पढ़ें…. इन पोस्टों को पढ़ कर मीडिया और ब्लॉगजगत से जुड़े हुए बहुत से लोगों द्वारा प्रतिक्रियाएं मिली थीं… कुछ संस्थाओं और लोगों ने स्वयं ब्रह्मपाल से मिल कर उनके संघर्ष और जज्बे को समझा-जाना … कुछ ने आर्थिक सहायता भी दी… लेकिन इस सहायता राशि को भी अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए न रख कर समाज सेवा में अर्पित कर दिए गए….  तीन दिन पहले कहीं रास्ते में फिर से ब्रह्मपाल से मेरा मिलना हो गया… बातें होती रहीं… आज़ाद पुलिस के अगले मिशन के बारे में पूछने पर पता चला कि निकट भविष्य में आजाद पुलिस द्वारा एक गुटखे पर तिरंगे झंडे की तस्वीर और नाम का बेजा इस्तेमाल करने से तिरंगे का अपमान होता है. इस कंपनी के विरोध में जैसा कि ब्रह्मपाल ने अनेक बार प्रशासन को आगाह दिया था प्रशासन तक बात बखूबी पहुँच भी  चुकी थी लेकिन ब्रह्मपाल की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ही साबित हुई और उस कंपनी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गयी… इस कंपनी के विरोध में शीघ्र धरने पर बैठने हेतु उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को सूचना भेजी जा रही है… 

Top.bmpइसके अतिरिक्ति जिस पुलिस और प्रशासन ने कभी ब्रह्मपाल की सुध नहीं ली... उसकी आवाज़ बंद करने के लिए  सिरफिरा करार देते हुए बेवजह बार बार जेल में ठूंसती रही उसी पुलिस की कार्यप्रणाली के सुधार के सपने देखने वाला ब्रह्मप्रकाश(आज़ाद पुलिस) कुछ ही महीने में मुंबई पुलिस की खबर लेने मुंबई जाने वाला है… बताया कि २१ मई २०११   को अपने रिक्शे सहित मुंबई जाकर मुंबई पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार और मौलिक कमियों को उजागर करने का प्रयास करेगा … इसके लिए आज़ाद पुलिस का अनोखा तरीका है पुलिस का चालान करना… ये जुनूनी वन मैन आर्मी अपनी स्वयं की चालान बुक रखता है… जहाँ कहीं पुलिस की कमियाँ देखता है… तुरंत चालान काटता है … चालान पर उस पुलिस वाले के हस्ताक्षर भी करवाता है और चालान एस एस पी अथवा उनसे उच्चतर अधिकारी को बकायदा कार्यवाही करने के अनुरोध के साथ प्रस्तुत किया जाता है… इस प्रयास में कई बार पुलिस का कोप-भाजन बनने, मार खाने, हवालात जाने के बावजूद उसके जज्बे में कोई कमी नहीं आती और अपना संघर्ष जारी रखता है,  मुंबई जाने के सम्बन्ध में   दिल्ली पंजाब केसरी समाचार पत्र ने दिनांक ०१-१२-१० के अंक में खबर को प्रमुखता दी है…

यहाँ अवगत कराना चाहूँगा कि ब्रह्मपाल के अनुसार किसी सहायता अथवा अनुदान राशि का एक पैसा अपनी जीविका के लिए प्रयोग नहीं करता…  आज़ाद पुलिस को भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को उजागर करने के लिए उसे  एक कैमरे की आवश्यकता थी … जय कुमार झा जी की सलाह पर इस तरह के ईमानदार और आम जनता के लिए होने वाले संघर्ष पर छोटी-छोटी सहयोग राशि के लिए hprd   के लिए अपने वेतन से प्रतिमाह ५० रूपए का एक छोटा सा फंड बनाना शुरू कर दिया था… आशा है इस प्रयास के लिए मेरे फंड से शीघ्र ही एक कैमरा लिया जा सकेगा…

आज़ाद पुलिस की मुहिम और संघर्ष के प्रति ब्लॉग जगत में भी कई मित्रों का सहयोग लगातार प्राप्त होता रहा है…हाल ही में ब्लॉग जगत के कुछ सक्षम मित्रों की संवेदनाएं ब्रह्मपाल के प्रति शिद्दत से दिखी … इस बात से आज़ाद पुलिस की नगण्य सी मुहिम परवान चढेगी ऐसा विश्वास है… इस पोस्ट के माध्यम से आप सब से अपील है कि आज़ाद पुलिस की मुंबई मुहिम पर यथा संभव यथा योग्य सहयोग करें…

आज़ाद पुलिस की आगे की गतिविधियों के लिए नया ब्लॉग बना दिया गया है जिससे लोग आसानी से आज़ाद पुलिस और उसकी मुहिम से सीधे जुड़ सकें… ब्लॉग पर जाने के लिए क्लिक करें <आज़ाद पुलिस> पर

आपका पद्म सिंह ९७१६९७३२६२