रविवार, 2 सितंबर 2012

मेरी दुवाओं का अंजाम भी पाए कोई

कभी तो सामने अंजाम भी आए कोई
मेरी दुवाओं का असर भी तो पाए कोई

किसी का नाम जुबां पर न सही दिल मे है
कभी तस्वीर को आईना बनाए कोई

कोरे कागज़ के पैरहन कभी रंगीन भी हों
रंग बरसाए कभी झूम के गाए कोई

जिसके घर लगता है हर शाम गमों का मेला
जाए भी घर तो सिर्फ नाम को जाए कोई

लहू सा उम्र भर जो बहते रहे सीने मे
अब भुलाए तो उन्हें कैसे भुलाए कोई

दर्द ऐसा न सहा जाए न छोड़ा जाआए
इश्क कैसे तेरा भी साथ निभाए कोई

दर्द से जिसने मरासिम बना लिया हो पद्म
काहे पछताए कोई रंज मनाए कोई

..... पद्म सिंह

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

गज़ल

फिर से घनघोर घाटा छाई है अमराई मे
कहाँ हो आन मिलो शाम की तनहाई मे

विरह की आग पे छींटे न दे अरे बादल
कहीं धुआँ न उठे फिर कहीं रुसवाई मे

चाँद बेज़ार भटकता रहा सरे मंज़र
चाँदनी खोई बादलों की तमाशाई मे

रूठने और मनाने को बहुत हैं मौसम
आज तो चूड़ियाँ मचलने दो कलाई मे

पद्म खिलने लगे हैं झील मे कंवल ऐसे
जैसे केसर का रंग घुल गया मलाई मे

-.... पद्म सिंह- 04-07-2012

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बुधवार, 2 मई 2012

क्यों नपुंसक हो गयी हैं आंधियाँ

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कहाँ जाने खो गयी हैं आँधियाँ
क्यों नपुंसक हो गयी हैं आंधियाँ

हवाएँ पश्चिम से कुछ ऐसे चलीं
युवा मन मे सो गयी हैं आंधियाँ

मुट्ठियाँ सब बुद्धिजीवी हो गयीं
और तनहा हो गयी हैं आँधियाँ

आज घर मे शान्ति है धोका न खा
अभी कल ही तो गयी हैं आंधियाँ

शक्ति, साहस, और लड़ने की ललक
जाने क्या क्या बो गयी हैं आंधियाँ

"पद्म" सच मे बदलना है दौर तो
जगाओ जो सो गयी हैं आंधियाँ


पद्म सिंह 02/05/20012

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शनिवार, 24 मार्च 2012

कैक्टस गुलाब और गुलाब जामुन

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लव गुरु से किसी चेले ने पूछा एक दिन
गुरु नारियों के भेद आज बतलाइए
कैसे किस नज़र से देखे कोई कामिनी को
सार सूत्र सुगम सकल समझाइए

गुरु बोला पहला प्रकार तो है कैक्टस का
दूसरे प्रकार की गुलाब जैसी होती हैं
तीसरा प्रकार नारियों का है गुलाब जामुन
तीन ही तरह से मुझे नज़र आती हैं
चेला बोला गुरु जी समझ नहीं आया कुछ
थोड़ा तो खुलासा कर ज्ञान रस घोलिए
कैक्टस गुलाब औ गुलाब जामुनों से अब
परदा हटाइए रहस्य जरा खोलिए

गुरु बोला कैक्टस है पहला प्रकार जिसे
दूर से ही देखते हैं छू भी नहीं सकते
चखना तो है बड़े ही दूर की कठिन बात
कैक्टस को हम सूंघ भी तो नहीं सकते
बड़े घर की निराली बालकनियों पे सजी
दूर से नाज़ारा लेके लोग ललचाएँगे
छूने का प्रयास मत करना रे प्यारे कभी
वरना तो बेहिसाब काँटे चुभ जाएँगे

दूसरा प्रकार है गुलाब जैसी प्रेयसी का
काँटो की सुरक्षा मे बहुत इतराती है
कभी अठखेलियाँ करे सहेली तितलियाँ
कभी टोली भँवरों की चक्कर लगाती हैं
पर प्रेम या गुलाब का उसूल ऐसा है कि
सूंघ सकते हैं पर चख नहीं सकते
परिणय से ही बनता गुलाब गुलकंद
बिना अपनाए उसे रख नहीं सकते

तीसरा प्रकार नारियों है गुलाब जामुन
गोल मोल लाली सी है अजब निराली सी
नरम नरम रसवंती सी लगे मगर
छूते ही जो फट पड़ती है घरवाली सी
घरवाली नारियों का तीसरा स्वरूप है जी
इत्ता सा कहूँगा उतना समझ जाइए
पत्नी गुलाब जामु न सी है इसीलिए कि
देखिये कि सूँघिए कि चाटिए कि खाइये


(C) Padm Singh- 9716973262
25/.3/2012 Ghaziabad

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सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

भेरी आवाज़ लगाती है

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अब जाग उठो अब कमर कसो आहुति की राह बुलाती है

ललकार रही दुनिया हमको भेरी आवाज़ लगाती है


भारत माता के वीर सपूतो धारा की पहचान करो
नावों के बंधन को खोलो पतवार उठा प्रस्थान करो
फिर नए लक्ष्य की चाह विजय की राह तुम्हें दिखलाती है

ललकार रही दुनिया हमको भेरी आवाज़ लगाती है

तंद्रा छोड़ो आँखें खोलो अब नए लक्ष्य संधान करो
तम की कारा को तोड़ फोड़ जगती का नव उत्थान करो
जब अपनी बाहों मे बल हो तो दुनिया पलक बिछाती है
ललकार रही दुनिया हमको भेरी आवाज़ लगाती है


अब प्रण की बारी आई है अब रण की बारी आई है
तन मन को जो दूषित कर दे वो रात दुधारी आई है
भारत माँ अपने बेटों को सत्पथ की राह बुलाती है
ललकार रही दुनिया हमको भेरी आवाज़ लगाती है

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बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

बस यही रात सोचने के लिए बाकी है

कल उत्तर प्रदेश मे चुनावी घमासान की शुरुआत है... फेसबुक पर अनगढ़ चिन्तन  करते करते कुछ अनगढ़ विचार पंक्तियों मे उतर आए....  पोस्ट के कमेन्ट के रूप मे भाई सलिल वर्मा जी ने कविता को आगे बढ़ाया और एक रचना ने रूप पाया... जिसे ब्लॉग पर डालने का लोभ संवरण नहीं कर सका...यह कविता मेरी और सलिल वर्मा जी के विचारों का फ्यूजन है...


बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही ज़िम्मेदारी है
एक तरफ सुबह का उजाला है
एक तरफ स्याह अन्धेरे की हवस तारी है
वक्त क्या वेश धर के आएगा
कोई बिरला ही समझ पाएगा
असली चेहरा कहीं छुपा होगा
एक मुखौटा ही मुस्कुराएगा
कुछ समझ पाने की दुश्वारी है
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही ज़िम्मेदारी है ...

रात सोते में ही इस शहर के लोग,
अपनी आँखों को गंवा बैठे हैं
सुबह जब निकलेगा सूरज तो नहीं जानेंगे
उनके आगे ये अन्धेरा है या वो नींद में हैं
आँख पर पर्दा पड़ा है जो ज़ात मजहब का
या कि केसरिया-सब्ज़ परचम का
उनको मालूम कहाँ अंधे हैं कि परदे हैं.
कौन समझाए भला  कौन उन्हें समझाए,
बस यही रात सोचने के लिए बाकी है
कल सुबह लाने की अपनी ही जिम्मेदारी है!!

शनिवार, 28 जनवरी 2012

नेता स्त्रोत ...


सदा श्वेत वस्त्रम, खुंसे अंग शस्त्रम, च वाहन विशालादि सत्ता सुखम ...
चमचा कृपालम, विरोधस्य कालम, सुवांगी श्रुतम चैव लारम भजे...
नमो भ्रष्ट पोषी, च स्विस बैंक कोशी, न जांचम, न दोषी, समेटाsधनम
अनर्गल प्रलापम, च वादा खिलाफम, बकम रात्रि दिवसम अनापम शनापम
निपोराणि खीसम, निर्लज्जमीशम, सुरा सुन्दरी भोग गम्यम भजे
नमो कष्टकारी, च गुंडाधिकारी, सदा लूटकारी, शिकारी धनम
खलस्यादि मित्रम, दुधारी चरित्रम, चुनावे पवित्रम, कुचक्री परम
सदा दुष्ट संगम, च पिस्तौल बंबम, जगन्नापदा, विघ्नकारी परम
त्वया सत्ता धीशम, महामंडलीशम तु नक्कार खानाय तूती वयं

*****नेता वन्दन**** 

सपरिवार निंदउं तुम्हें हे नेता गद्दार..... तरसो वोटन के लिए सुखी रहे संसार
हे गरीब के पेट पर रोटी सेंकनहार, जिस दिन तुम मंत्री बनो गिर जाये सरकार
बोल न फूटे जब तुम्हें हार्टअटैक ड़ि जाय,लूटा धन स्विस बैंक मे पड़े पड़े सड़ि जाय
पाठक जो पढ़ के इसे हाथ पैर मुंह धोय...सात जनम घर ताहि के नेता कबहुँ न होय 

बोलो सत्तानन्द सटोरी धन-आनंद बटोरी नेता भ्रष्टानंद की क्षय  !!!

हे वीणा शोभायनी

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हे वीणा शोभायनी, हे विद्या की खान
मेरी भव बाधा करो, बाँह धरो अब आन
माँ तुमसे क्या छुपा है तू कब थी अनजान
तुम्हीं सँवारो काज सब, तुम्हीं बचाओ मान
आन बान सब छाँणि के आया मै नादान
पत राखो वागेश्वरी, शत शत तुम्हें प्रणाम
..............
वसन्त पंचमी के पावन पर्व पर माँ वीणापाणि के चरणों मे प्रणाम करते हुए
आप सब को बहुत बहुत मंगल कामनाएँ ....


मंगलवार, 24 जनवरी 2012

जूता पचीसी

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कई बार मज़ाक मे लिखी गयी दो चार पंक्तियाँ  अपना कुनबा गढ़ लेती है... ऐसा ही हुआ इस जूता पचीसी के पीछे... फेसबुक पर मज़ाक मे लिखी गयी कुछ पंक्तियों पर रजनीकान्त जी ने टिप्पणी की कि इसे जूता बत्तीसी तक तो पहुँचाते... बस बैठे बैठे बत्तीसी तो नहीं पचीसी अपने आप उतर आई... अब आ गयी है तो आपको परोसना भी पड़ रहा है... कृपया इसे हास्य व्यंग्य के रूप
मे ही लेंगे ऐसी आशा करता हूँ।

जूता मारा तान के लेगई पवन उड़ाय
जूते की इज्ज़त बची प्रभु जी सदा सहाय ।1।

साईं इतना दीजिये दो जूते ले आँय
मारहुं भ्रष्टाचारियन जी की जलन मिटाँय ।2।

जूता लेके फिर रही जनता चारिहुं ओर
जित देखा तित पीटिया भ्रष्टाचारी चोर ।3।

कबिरा कर जूता गह्यो छोड़ कमण्डल आज
मर्ज हुआ नासूर अब करना पड़े इलाज ।4।

रहिमन जूता राखिए कांखन बगल दबाय
ना जाने किस भेस मे भ्रष्टाचारी मिल जाय ।5।

बेईमान मचा रहे चारिहुं दिसि अंधेर
गंजी कर दो खोपड़ी जूतहिं जूता फेर ।6।

कह रहीम जो भ्रष्ट है, रिश्वत निस दिन खाय
एक दिन जूता खाय तो जनम जनम तरि जाय ।7।

भ्रष्टाचारी, रिश्वती, बे-ईमानी, चोर
खल, कामी, कुल घातकी सारे जूताखोर ।8।

माया से मन ना भरे, झरे न नैनन नीर
ऐसे कुटिल कलंक को जुतियाओ गम्भीर ।9।

ना गण्डा ताबीज़ कुछ कोई दवा न और
जूता मारे सुधरते भ्रष्टाचारी चोर 10।

जूता सिर ते मारिए उतरे जी तक पीर
देखन मे छोटे लगें घाव करें गम्भीर ।11।

भ्रष्ट व्यवस्था मे चले और न कोई दाँव
अस्त्र शस्त्र सब छाँड़ि के जूता रखिए पाँव ।12।

रिश्वत खोरों ने किया जनता को बेहाल
जनता जूता ले चढ़ी, गाल कर दिया लाल ।13।

रहिमन काली कामरी, चढ़े न दूजो रंग
पर जूते की तासीर से भ्रष्टाचारी दंग ।14।

थप्पड़ से चप्पल भली, जूता चप्पल माँहिं
जूता वहि सर्वोत्तम जेहिं भ्रष्टाचारी खाहिं ।15।

रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिये डारि
काम करे जूता जहां नहीं तीर तरवारि ।16।

जूता मारे भ्रष्ट को, एकहि काम नासाय
जूत परत पल भर लगे, जग प्रसिद्ध होइ जाय ।17।

भ्रष्ट व्यवस्था मे कभी मिले न जब अधिकार
एक प्रभावी मन्त्र है, जय जूतम-पैजार ।18।

जूता जू ताकत फिरें भ्रष्टाचारी चोर
जूते की ताकत तले अब आएगी भोर ।19।

रिश्वत दे दे जग मुआ, मुआ न भ्रष्टाचार
अब जुतियाने का मिले जनता को अधिकार ।20।

भ्रष्टाचार मिटे तभी जब जीभर जूता खाय
एक गिनो तब जाय के जब सौ जूता हो जाय।21।

इब्ने बतूता बगल मे जूता पहने तो बोले चुर्र
हाथ मे लेके देखिये, भ्रष्टाचारी फुर्र ।22।

पनही, जूता, पादुका, पदावरण, पदत्राण
भ्रष्टाचारी भागते नाम सुनत तजि प्राण ।23।

जूते की महिमा परम, जो समझे विद्वान
बेईमानी के लिए जूता-कर्म निदान ।24।

बेईमानी से दुखी रिश्वत से हलकान
जूत पचीसी जो पढ़े, बने वीर बलवान ।25।

सोमवार, 2 जनवरी 2012

जनमानस स्तब्ध है लोकतन्त्र लाचार

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जनता सड़कों पर खड़ी मांग रही कानून
मनमानी सरकार की बना नहीं मजमून
भय है भ्रष्टाचार पर लग ना जाय नकेल
भ्रष्टाचारी       खेलते     उल्टे    सीधे   खेल
उल्टे   सीधे    खेल   काम जैसे भी बनता
नहीं बने कानून    भाड़ मे जाये जनता
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संसद की सर्वोच्चता सत्ता का यह खेल
कैसी   अंधाधुंध     है    कैसी    रेलमपेल
राजनीति की नसों  मे पसरा भ्रष्टाचार
जनमानस   स्तब्ध है लोकतन्त्र लाचार
लोकतन्त्र  लाचार ठनी नौटंकी हद की
फिर नंगी तस्वीर उभर आई संसद की
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जनता जब से जगी है ऐसी पड़ी नकेल
हुए उजागर बहुत से राजनीति के खेल
कहने को सब चाहते लोकपाल मजबूत
पर सपनों मे डराए  लोकपाल का भूत
लोकपाल का भूत  नहीं कुछ कहते बनता
अन्ना,बाबा, स्वामी पीछे सारी जनता
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मंहगाई सर पे चढ़ी फिर उछला पेट्रोल 
सरकारी वादे सभी  बने ढ़ोल के पोल
भूखा मारे गरीब और सड़ता रहे अनाज
देश नोच कर खा रहे  सत्ताधारी बाज़
सत्ताधारी बाज़    कयामत    जैसे  आई
जीना दूभर हुआ चढ़ी सर पे मंहगाई
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यह रचना  मेरे अन्य ब्लॉग  पद्मावलि पर भी प्रकाशित है... क्षमा  करें !